गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
इसीलिये शास्त्रकार मृत्यु से पहले के काल की अपेक्षा मरण-काल ही का विशेष महत्वपूर्ण मानते हैं, और यह कहते हैं कि इस समय यानी मृत्यु के समय ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान का अनुभव अवश्य होना चाहिये, नहीं तो मोक्ष नहीं होगा। इसी अभिप्राय से उपनिषदों के आधार पर गीता में कहा गया है कि “अन्तकाल में मेरा अनन्य भाव से स्मरण करने पर मनुष्य मुक्त होता है”[1]। इस सिद्धान्त के अनुसार कहना पड़ता है कि यदि कोई दुराचारी मनुष्य अपनी सारी आयु दुराचरण में व्यतीत करे और केवल अन्त समय में ब्रह्मज्ञान पा जावे, तो वह भी मुक्त हो जाता है। इस पर कुछ लोगों का कहना है, कि यह बात युक्तिसंगत नहीं। परन्तु थोड़ा सा विचार करने पर मालूम होता होगा कि यह बात अनुचित नहीं कही जा सकती– यह बिलकुल सत्य और सयुक्तिक है। वस्तुत: यह संभव नहीं कि जिसका सारा जन्म दुराचार में बीता हो, उसे केवल मृत्यु-समय में ही ब्रह्मज्ञान हो जावे। अन्य सब बातों के समान ही ब्रह्मनिष्ठ होने के लिये मन को आदत डालनी पड़ती है; और जिसे इस जन्म में एक बार भी ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान का अनुभव नहीं हुआ है, उसे केवल मरणकाल में ही उसका एकदम हो जाना परम दुर्घट या असंभव भी है। इसीलिये गीता का दूसरा महत्वपूर्ण कथन यह है कि मन को विषय-वासना रहित बनाने के लिये प्रत्येक मनुष्य को सदैव अभ्यास करते रहना चाहिये, जिसका फल यह होगा कि अन्तकाल में भी यही स्थिति बनी रहेगी और मुक्ति भी अवश्य हो जायेगी[2]। परन्तु शास्त्र की छानबीन करने के लिये मान लिजिये कि पूर्व संस्कार आदि कारणों से किसी मनुष्य को केवल मृत्यु-समय में ही ब्रह्मज्ञान हो गया। ऐसा उदाहरण लाखों-करोड़ों मनुष्यों में एकाध ही मिल सकेगा। चाहे एसा उदाहरण मिले या न मिले, इस विचार को एक ओर रख कर हमें यही देखना है कि यदि ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाय तो क्या होगा। ज्ञान चाहे मरणकाल में ही क्यों न हो, परन्तु इससे मनुष्य के अनारब्ध–संचित का क्षय होता ही है; और इस जन्म के भोग से आरब्ध–संचित का क्षय मृत्यु के समय हो जाता है। इसलिये उसे कुछ भी कर्म भोगना बाकी नहीं रह जाता है; और यही सिद्ध होता है कि वह सब कर्मों से अर्थात संसार-चक्र से मुक्त हो जाता है। यही सिद्धान्त गीता के इस वाक्य में कहा गया है कि “अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्”[3]–यदि कोई बड़ा दुराचारी मनुष्य भी परमेश्वर का अनन्य भाव से स्मरण करेगा तो वह भी मुक्त हो जायगा; और यह सिद्धान्त संसार के अन्य सब धर्मों में भी ग्राह्य माना गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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