गीता रहस्य -तिलक पृ. 28

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

इस संसार में, सब लोगों की सम्मति के अनुसार यह अहिंसा धर्म, सब धर्मों में, श्रेष्ट माना गया है। परन्तु अब कल्पना कीजिये कि हमारी जान लेने के लिये या हमारी स्त्री अथवा कन्या पर बलात्कार करने के लिये, कोई दुष्ट मनुष्‍य हाथ में शस्त्र लेकर तैयार हो जाय और उस समय हमारी रक्षा करने वाला हमारे पास कोई न हो; तो उस समय हमको क्या करना चाहिये? क्या "अहिंसा परमोधर्मः" कहकर ऐसे आततायी मनुष्‍य की उपेक्षा की जाय या यदि वह सीधी तरह से न माने तो यथाशक्ति उसका शासन किया जाय, मनुजी कहते हैं-

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्रह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयन्।।

अर्थात्" ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्‍य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है"। शास्त्रकार कहते है कि[1] ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किंतु आततायी मनुष्‍य अपने अधर्म ही से मारा जाता है। आत्मरक्षा का यह हक, कुछ मर्यादा के भीतर, आधुनिक फौजदारी कानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्म रक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है। भ्रूण हत्या सब से अधिक निन्दनीय मानी गई है; परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है तब क्या उसको काटकर निकाल नहीं डालना चाहिये। यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी प्रशस्त माना है[2]; परन्तु पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है[3]। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में जो सैकडों जीव-जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है महाभारत में[4] अर्जुन कहता हैः-

सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोअपि निपातेन येषां स्यात् स्कंधपर्ययः।।

"इस जगत में ऐसे ऐसे सूक्ष्मजन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आखों के पलक हिलावें तो उतने ही से उन जन्तुओं का नाश हो जाता हैं"। ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि "हिंसा मत करो, हिंसा मत करो" तो उससे क्या लाभ होगा इसी विचार के अनुसार अनुशासन पर्व में[5] शिकार करने का समर्थन किया गया है। वन पर्व एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिवृता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका यत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिये उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने- माता- पिता का बड़ा पका भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्त्व समझकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता" जीवो जीवस्य जीवनम्"[6]- यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपतकाल में तो "प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्" यह नियम सिर्फ स्मृतिकारों ने ही नहीं [7]कहा है, किंतु उपनिषदो में भी स्पष्ट कहा गया है [8]। यदि सब लोग हिंसा छोड़ दे तो क्षात्रधर्म कहा और कैसे रहेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 8.350
  2. मनु दृ 5.31
  3. मभा.शा.337;अनु.115.56
  4. शा.15.26
  5. अनु.116
  6. भाग. 1.13.46
  7. मनु. 5.28 मभा. शा.15.21
  8. वेसू. 3.4.28; छां.र 5.2.1; बृ. 6.1.14

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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