गीता रहस्य -तिलक पृ. 275

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

अर्जुन के मन में यही शंका उत्‍पन्‍न हुई थी और उसने गीता के छठवें अध्‍याय[1] में श्रीकृष्‍ण से पूछा है कि ऐसे प्रसंगो पर मनुष्‍य को क्‍या करना चाहिये। उत्तर में भगवान ने कहा है कि आत्‍मा अमर होने के कारण उस पर लिंग-शरीर द्वारा इस जन्‍म में जो थोड़े बहुत संस्‍कार होते हैं, वे आगे भी ज्‍यों के त्‍यों बने रहते हैं, तथा यह ‘योगभ्रष्‍ट ‘पुरुष, अर्थात कर्मयोग को पूरा न साध सकने के कारण उससे भ्रष्‍ट होने वाला पुरुष, अगले जन्‍म में अपना प्रयत्‍न वहीं से शुरू करता है कि जहाँ से उसका अभ्‍यास छूट गया था और ऐसा होते होते क्रम से “अनेकजन्‍मसंसिद्धस्‍ततो याति परां गतिम्”[2]–अनेक जन्‍मों में पूर्ण सिद्धि हो जाती है एवं अन्‍त में उसे मोक्ष प्राप्‍त हो जाता है। इसी सिद्धान्‍त को लक्ष्‍य करके दूसरे अध्‍याय में कहा गया है कि “स्‍वल्‍पमप्‍यस्‍य धर्मस्‍य त्रायते महतो भयात्”[3]–इस धर्म का अर्थात कर्मयोग का स्‍वल्‍प आचरण भी बड़े बड़े संकटों से बचा देता है। सारांश, मनुष्‍य का आत्मा मूल में यद्यपि स्‍वतंत्र है तथापि मनुष्‍य एक ही जन्‍म में पूर्ण सिद्धि नहीं पा सकता, क्‍योंकि पूर्व कर्मों के अनुसार उसे मिली हुई देह का प्राकृतिक स्‍वभाव अशुद्ध होता है।

परन्‍तु इससे “नात्‍मानमवमन्‍येत पूर्वाभिरसमृद्धिभि:”[4] किसी को निराश नहीं होना चाहिये; और एक ही जन्‍म में परम सिद्धि पा जाने के दुराग्रह में पड़ कर पातंजल योगाभ्‍यास में, अर्थात इन्द्रियों का ज़बर्दस्‍ती दमन करने में ही सब आयु वृथा खो नहीं देनी चाहिये। आत्‍मा को कोई जल्‍दी नहीं पड़ी है, जितना आज हो सके उतने ही योगबल को प्राप्‍त करके कर्मयोग का आचरण शूरू कर देना चाहिये, जिससे धीरे धीरे बुद्धि अधिकाधिक सात्त्विक तथा शुद्ध होती जायगी और कर्मयोग का यह स्‍वल्‍पाचरण–नहीं, जिज्ञासा भी–मनुष्‍य को आगे ढकेलते ढकेलते अंत में आज नहीं तो कल, इस जन्‍म में नहीं तो दूसरे जन्‍मों में, उसके आत्‍मा को पूर्णब्रह्म-प्राप्ति कर देगा। इसीलिये भगवान ने गीता में साफ कहा है कि कर्मयोग में एक विशेष गुण यह है कि उसका स्‍वल्‍प से भी स्‍वल्‍प आचरण कभी व्‍यर्थ नहीं जाने पाता[5]। मनुष्‍य को उचित है कि वह केवल इसी जन्‍म पर ध्‍यान न दे और धीरज को न छोड़े, किन्‍तु निष्‍काम कर्म करने के अपने उद्योग को स्‍वतंत्रता से और धीरे धीरे यथाशक्ति जारी रखे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.37.-39
  2. गी. 6. 45
  3. गी. 2. 40
  4. मनु. 4,137
  5. गी. 6. 15 पर हमारी टीका देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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