गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
आधिदैवत पक्ष के पंडित इसे सदसदविवेक-बुद्धिरूपी देवता की स्वतन्त्र स्फूर्ति कहते हैं। परनतु तात्विक दृष्टि से विचार करने पर विदित होता है, कि बुद्धीन्द्रिय जड़ प्रकृति ही का विकार होने के कारण स्वयं अपनी ही प्रेरणा से कर्म के नियम-बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकती, यह प्रेरणा उसे कर्म-सष्टि के बाहर के आत्मा से प्राप्त होती है। इसी प्रकार पश्चिमी पण्डितों का “इच्छा-स्वातंत्रय” शब्द भी वेदान्त की दृष्टि से ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छा मन का धर्म है और आठवें प्रकरण में कहा जा चुका है कि बुद्धि तथा उसके साथ साथ मन भी कर्मात्मक जड़ प्रकृति का अस्वयंवेध विकार है इसलिये ये दोनों स्वंय आप ही कर्म के बंधन से छूट नहीं सकते। अतएव वेदान्तशास्त्र का निश्चय है कि सच्चा स्वातंत्रय न तो बुद्धि का है और न ही मन का–वह केवल आत्मा का है। यह स्वातंत्रय परमात्मा का अंशरूप जीवात्मा जब उपाधि के बंधन में पड़ जाता है, तब वह स्वयं स्वतंत्र रीति से ऊपर कहे अनुसार बुद्धि तथा मन में प्रेरणा किया करता है। अन्त:करण की इस प्रेरणा का अनादर करके कोई बर्ताव करेगा तो यही कहा जा सकता है कि वह स्वयं अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारने को तैयार है। भगवद्गीता में इसी तत्त्व का उल्लेख यों किया गया है “न हिनस्त्यात्मनाऽऽमानं”– जो स्वंय अपना घात आप ही नहीं करता, उसे उत्तम गति मिलती है[1]; और दासबोध में भी इसी का स्पष्ट अनुवाद किया गया है[2]। यद्यपि देख पड़ता है कि मनुष्य कर्म-सृष्टि के अभेद नियमों से जकड़ कर बंधा हुआ है, तथापि स्वभावत: उसे ऐसा मालूम होता है कि मैं किसी काम को स्वतंत्र रीति से कर सकूंगा। अनुभव के इस तत्त्व की उपपत्ति ऊपर कहे अनुसार ब्रह्म-सृष्टि को जड़-सृष्टि से भिन्न माने बिना किसी भी अन्य रीति से नहीं बतलाई जा सकती। इसलिये जो अध्यात्मशास्त्र को नहीं मानते, उन्हें इस विषय में या तो मनुष्य के नित्य दासत्व को मानना चाहिये, या प्रवृति-स्वातन्त्रय के प्रश्न को अगम्य समझ कर यों ही छोड़ देना चाहिये; उनके लिये कोई दूसरा मार्ग नहीं है। अद्वैत वेदान्त का यह सिद्धांत है कि जीवात्मा और परमात्मा मूल में एकरूप है[3] और इसी सिद्धांत के अनुसार प्रवृति-स्वातंत्रय या इच्छा-स्वातंत्रय की उक्त उपपत्ति बतलाई गई है। परन्तु जिन्हें यह अद्वैत मत मान्य नहीं है, अथवा जो भक्ति के लिये द्वैत को स्वीकार किया करते हैं, उनका कथन है कि जीवात्मा का यह सार्मथ्य स्वयं उसका नहीं है, बल्कि यह उसे परमेश्वर से प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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