गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पहले तो सब निष्द्धि कर्मों को त्याग करना ही असंभव है; और यदि एकआध निषिद्ध कर्म हो जाय तो केवल नैमित्तिक प्रायश्चित से उसके सब दोषों का नाश भी नहीं होता। अच्छा यदि यह मान लें कि उक्त बात सम्भव है, तो भी मिमांसकों के इस कथन में ही कुछ सत्यांश नहीं देख पड़ता, कि ‘प्रारब्ध’ कर्मों को भोगने से तथा इस जन्म में किये जानेवाले कर्मों को उक्त युक्ति के अनुसार करने या न करने सब ‘ संचित ‘ कर्मों का संग्रह समाप्त हो जाता है, क्योंकि दो ‘ संचित ‘ कर्मों के फल परस्पर-विरोधी– उदाहरणार्थ, एक का फल स्वर्गसुख तथा दूसरे को नरक यातना–हो, तो उन्हें एक ही समय में और एक ही स्थल में भोगना असंभव है; इसलिये इसी जन्म में प्रारब्ध हुए कर्मों से तथा इसी जन्म में किये जाने वाले कर्मों से सब ‘संचित’ कर्मों के फलों का भोगना पूरा नहीं हो सकता। महाभारत में, पराशरगीता में कहा गया है:- कदाचित्सुकृतं तात कूटस्थमिव तिष्ठति । ‘’कभी कभी मनुष्य के सांसारिक दु:खों से छूटने तक, उसका पूर्वकाल में किया गया पुण्य ( उसे अपना फल देखने की राह देखता हुआ ) बाट जोहता रहता है ‘’[1] और यही न्याय संचित पापकर्मों को भी लागू है। इस प्रकार से संचित कर्मों का प्रयोग एक ही जन्म में नहीं चुक जाता; किन्तु संचित कर्मों का एक भाग अर्थात अनारब्ध कार्य हमेशा बचा ही रहता है; और इस जन्म में सब कर्मों को यदि उक्त युक्ति से करते रहें तो भी बचे हुए अनारब्ध कार्य–संचित को भोगने के लिये पुन: जन्म लेना ही पड़ता है। इसी लिये वेदान्त का सिद्धांत है कि मीमांसकों की उपर्युक्त सरल मोक्ष-युक्ति खोटी तथा भ्रान्तिमूलक है। कर्म-बंधन से छूटने का यह मार्ग किसी भी उपनिषद में नहीं बतलाया गया है। यह केवल तर्क के आधार से स्थापित किया गया है; परन्तु यह तर्क भी अन्त तक नहीं टिकता। सारांश, कर्म के द्वारा कर्म से छुटकारा पाने की आशा रखना वैसा ही व्यर्थ है, जैसे एक अन्धा, दूसरे अन्धे को रास्ता दिखला कर पार कर दे। अच्छा, अब यदि मिमांसकों की इस युक्ति को मंजूर न करें और कर्म के बंधनों से छुटकारा पाने के लिये सब कर्मों को आग्रहपूर्वक छोड़ कर निरुद्योगी बन बैठें तो भी काम नही चल सकता; क्योंकि अनारब्ध-कर्मों के फलों को भोगना तो बाकी रहता है, और इसके साथ कर्म छोड़ने का आग्रह तथा चुपचाप बैठे रहना तामस कर्म हो जाता है; एवं इन तामस कर्मों के फलों को भोगने के लिये फिर भी जन्म लेना ही पड़ता है[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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