गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
मनुस्मृति तथा महाभारत[1] में तो कहा गया है कि इन कर्म-फलों को न केवल हमें किंतु कभी कभी हमारी नाम-रूपात्मक देह से उत्पन्न हुए हमारे लडकों और नातियों तक को भी भोगना पड़ता है। शांतिपर्व में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं:- पापं कर्म कृतं किंचिद्यदि तस्मिन्न दृश्यते। अर्थात “हे राजा! यदि यह देख पड़े कि किसी आदमी को उसको पाप-कर्मों का फल नहीं मिला (समझना चाहिये कि) तो उसे उसके पुत्रों, पौत्रों और प्रपौत्रों को भोगना पड़ता है”[2]। हम लोग प्रत्यक्ष देखा करते हैं कि कोई कोई रोग परम्परा से प्रचलित रहते हैं। इसी तरह कोई जन्म से ही दरिद्री होता है और कोई वैभवपूर्ण राजकुल में उत्पन्न होता है। इन सब बातों की उपपत्ति केवल कर्मवाद से ही बतलाई जा सकती है; और बहुतों का मत है कि यही कर्म-वाद की सच्चाई का प्रमाण है। कर्म का यह चक्र जब एक बार आरम्भ हो जाता है तब उसे फिर परमेश्वर भी नहीं रोक सकता। यदि इस दृष्टि से देखें कि सारी सृष्टि परमेश्वर की इच्छा से ही चल रही है, तो कहना होगा कि कर्म-फल का देने वाला परमेश्वर से भिन्न कोई दूसरा नहीं हो सकता[3]; और इसीलिये भगवान ने कहा है कि “लभते च तत: कामान् मयैव विहितान हि तान्”[4]- मैं जिस फल का निश्चय कर दिया करता हूँ वही फल मनुष्य को मिलता है। परंतु, कर्म-फल को निश्चित कर देने का काम यद्यपि ईश्वर का है, तथापि वेदांतशास्त्र यह सिद्धांत है कि ये फल हर एक के खरे-खोटे कर्मों की अर्थात कर्म-अकर्म की योग्यता के अनुरूप ही निश्चित किये जाते है; इसीलिये परमेश्वर इस सम्बन्ध में वस्तुत: उदासीन ही है; अर्थात जब मनुष्यों में भले-बुरे का भेद हो जाता है तब उसके लिये परमेश्वर वैषम्य (विषमबुद्धि) और नैर्घृणय (निर्दयता) दोषों का पात्र नहीं होता[5]। इसी आशय का वर्णन गीता में भी है कि “समोऽहं सर्वभूतेषु”[6] अर्थात ईश्वर सब के लिये सम है; अथवा – नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभु:॥ परमेश्वर न तो किसी के पाप को लेता है न पुण्य को, कर्म या माया का चक्र स्वभावत: चल रहा है जिससे प्राणिमात्र को अपने अपने कर्मानुसार सुख-दु:ख भोगने पड़ते हैं[7]। सारांश, यद्यपि मानवी बुद्धि से इस बात का पता लगता कि परमेश्वर की इच्छा से संसार में कर्म का आरम्भ कब हुआ और तदंगभूत मनुष्य कर्म के बन्धन में पहले पहल कैसे फँस गया तथापि जब हम यह देखते हैं कि कर्म के भविष्य परिणाम या फल केवल कर्म के नियमों से ही उत्पन्न हुआ करते है, तब हम अपनी बुद्धि से इतना तो अवश्य निश्चय कर सकते हैं कि संसार के आरम्भ से प्रत्येक प्राणी नाम रूपात्मक अनादि कर्मों की कैद में बँध सा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मनु. 4.173; मभा. आ. 80.3
- ↑ 129. 21
- ↑ वेसू. 3. 2. 38; कौ.3. 8
- ↑ गी.7. 22
- ↑ वेसू. 2.1. 34
- ↑ 9. 29
- ↑ गी.5.14.15
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज