गीता रहस्य -तिलक पृ. 253


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

अतएव इतना मान कर ही आगे चलना पड़ता है, कि जब से हम देखते आये तब से निर्गुण ब्रह्म के साथ ही नाम- रूपात्मक विनाशी कर्म अथवा सगुण माया हमें दृग्गोचर होती आई है। इसी लिये वेदांतसूत्र में कहा है कि मायात्मक कर्म अनादि है[1]; और भगवद्गीता में भी भगवान ने पहले यह वर्णन करके कि प्रकृति स्वतंत्र नहीं है- ‘मेरी ही माया है’[2], फिर आगे कहा है कि प्रकृति अर्थात माया, और पुरुष, दोनों ‘अनादि’ हैं[3]। इसी तरह श्रीशंकराचार्य ने अपने भाष्य में माया का लक्षण देते हुए है कि “सर्वज्ञे- श्वरस्याऽऽस्मभूते इवाऽविद्याकल्पिते नामरूपे तत्त्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीये संसार- प्रपंचबीजभूते सर्वज्ञस्येश्वरस्य ‘माया’ ‘शक्ति:’ ‘प्रकृति' रिति च श्रुतिस्मृत्योरभिलप्यिते”[4]। इसका भावार्थ यह है – “(इन्द्रियों के) अज्ञान से मूल ब्रह्म में कल्पित किये हुए नाम-रूप को ही श्रुति और स्मृति-ग्रंथों में सर्वज्ञ परमेश्वर के आत्मभूत से जान पड़ता हैं, परंतु इनके जड़ होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि ये परब्रह्म से भिन्न हैं या अभिन्न ( तत्त्वान्यत्व ), और यही जड़ सृष्टि (दृश्य) के विस्तार के मूल हैं;” और “इस माया के योग से ही यह सृष्टि परमेश्वर निर्मित देख पड़ती है, इस कारण यह माया चाहे विनाशी हो, तथापि दृश्य-सृष्टि की उत्पत्ति के लिये आवश्यक और अत्यंत उपयुक्त है तथा इसी को उपनिषदों में अव्यक्त, आकाश, अक्षर इत्यादि नाम दिये गये हैं”[5]

इससे देख पड़ेगा कि चिन्मय (पुरुष) और अचेतन माया (प्रकृति) इन दोनों तत्त्वों को सांख्य-वादी स्वयंभू, स्वतंत्र और अनादि मानते हैं; पर माया का अनादित्व यद्यपि वेदांती एक तरह से स्वीकार करते हैं, तथापि यह उन्हें मान्य नहीं कि माया स्वयंभू और स्वतंत्र है; और इसी कारण संसारात्मक माया का वृक्षरूप से वर्णन करते समय गीता[6] में कहा गया है कि ‘न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नांतो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा,- इस संसार-वृक्ष का रूप, अंत आदि, मूल अथवा ठौर नहीं मिलता। इसी प्रकार तीसरे अध्याय में जो ऐसे वर्णन हैं कि ‘कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि’[7] – ब्रह्म से कर्म उत्पन्न हुआ; ‘यज्ञ: कर्म-समुद्भव:’[8]– यज्ञ भी कर्म से ही उत्पन्न होता है, अथवा ‘सह यज्ञा: प्रजा: सृष्टवा’[9]–ब्रह्मदेव ने प्रजा (सृष्टि), यज्ञ (कर्म) दोनों को साथ ही निर्माण किया; इन सब का तात्पर्य भी यही है कि “कर्म अथवा कर्मरूपी यज्ञ, और सृष्टि अर्थात प्रजा, ये सब साथ ही उत्पन्न हुए हैं।” फिर चाहे इस सृष्टि को प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव से निर्मित हुई कहो अथवा मीमांसकों की नाई यह कहो कि उस ब्रह्मदेव ने नित्य वेद-शब्दों से उसको बनाया- अर्थ दोनों का एक ही है[10]। सारांश, दृश्य-सृष्टि का निर्माण होने के समय मूल निर्गुण ब्रह्म में जो दिख पड़ता है, वही कर्म है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेसू. 2.1. 35-37
  2. गी. 7.14
  3. गी. 13.19
  4. वेसू. शांभा. 2.1.14
  5. वेसू. शांभा. 1. 4. 3
  6. 15. 3
  7. 3.15
  8. 3.14
  9. 3.10
  10. मभा. शां. 231; मनु. 1.21

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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