गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
इसलिये माया की व्याख्या देते समय कर्म को न ले कर नाम और रूप को ही कभी कभी माया कहते हैं। तथापि कर्म का जब स्वतंत्र विचार करना पड़ता है, तब यह कहने का समय आता है कि कर्म-स्वरूप और माया-स्वरूप एक ही है। इसलिये आरम्भ ही में यह कह देना अधिक सुभीते की बात होगी कि माया, नाम-रूप और कर्म, ये तीनों मूल में एक स्वरूप ही हैं। हाँ, उसमें भी यह विशिष्टार्थक सूक्ष्मभेद किया जा सकता है कि माया एक सामान्य शब्द है उसी के दिखावे को नाम-रूप तथा व्यापार को कर्म कहते हैं। पर साधारणतया यह भेद दिखलाने की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिये तीनों शब्दों का बहुधा समान अर्थ में ही प्रयोग किया जाता है। पर-ब्रह्म के एक भाग पर विनाशी माया का यह जो आच्छादन ( अथवा उपाधि= ऊपर का उढ़ौना ) हमारी आँखों को दिखाता है, उसी को सांख्यशास्त्र में “त्रिगुणात्मक प्रकृति” कहा गया है। सांख्यवादी पुरुष और प्रकृति दोनों तत्त्वों को स्वयंभू, स्वतंत्र और अनादि मानते हैं। परंतु माया, नाम-रूप अथवा कर्म, क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं; इसलिये उनको, नित्य और अविकारी परब्रह्म की योग्यता का, अर्थात स्वयंभू और स्वतंत्र मानना न्याय-दृष्टि से अनुचित है। क्योंकि नित्य और अनित्य ये दोनों कल्पनाएँ परस्पर विरुद्ध हैं और इसलिये दोनों का अस्तित्व एक ही काल में माना नहीं जा सकता। इसलिये वेदांतियों ने यह निश्चित किया है कि विनाशी प्रकृति अथवा कर्मात्मक माया स्वतंत्र नहीं है; किंतु एक नित्य, सर्वव्यापी और निर्गुण परब्रह्म में ही, मनुष्य की दुर्बल इन्द्रियों को सगुण माया का दिखावा देख पड़ता है। परंतु केवल इतना ही कह देने से काम नहीं चल जाता कि माया परतंत्र है और निर्गुण परब्रह्म में ही यह दृश्य दिखाई देता है। गुण-परिणाम से न सही, तो भी विवर्तवाद से निर्गुण और नित्य ब्रह्म में विनाशी सगुण नाम-रूपों का, अर्थात माया का दृश्य दिखाना चाहे सम्भव हो; तथापि यहाँ एक और प्रश्न उपस्थित होता है, कि मनुष्य की इन्द्रियों को दिखने वाला यह सगुण दृश्य निर्गुण परब्रह्म में पहले पहल किस क्रम से, कब और क्यों दिखने लगा? अथवा यही अर्थ व्यावहारिक भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है, कि नित्य और चिद्रूपी परमेश्वर ने नाम-रूपात्मक, विनाशी और जड़ सृष्टि कब और क्यों उत्पन्न की? परंतु ऋग्वेद के नासदीप सूक्त में जैसा कि वर्णन किया गया है, यह विषय मनुष्य के लिये नहीं; किंतु देवताओं के लिये और वेदों के लिये भी अगम्य है[1], इसलिये उक्त प्रश्न का इससे अधिक और कुछ उत्तर नहीं दिया जा सकता कि “ज्ञान-दृष्टि से निश्चित किये हुए निर्गुण परब्रह्म की ही यह एक अतर्क्य लीला है”[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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