गीता रहस्य -तिलक पृ. 249


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण
कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य।
कर्मणा बध्यते जंतुर्विद्यया तु प्रमुच्यते।[1][2]

यद्यपि यह सिद्धांत अंत में सच है कि इस संसार में जो कुछ है वह परब्रह्म ही है; परब्रह्म को छोड़कर अन्य कुछ नहीं है, तथापि मनुष्य की इन्द्रियों को गोचर होने वाली दृश्य-सृष्टि के पदार्थों का अध्यात्मशास्त्र की चलनी से जब हम संशोधन करने लगते हैं, तब उनके नित्य-अनित्यरूपी दो विभाग या समूह हो जाते हैं- एक तो उन पदार्थों का नाम- रूपात्मक दृश्य है जो इन्द्रियों को प्रत्यक्ष देख पड़ता है; परंतु हमेशा बदलने वाला होने के कारण अनित्य है और दूसरा परमात्म-तत्त्व है जो नाम-रूपों से आच्छादित होने के कारण अदृश्य, परंतु नित्य है। यह सच है कि रसायन-शास्त्र में जिस प्रकार सब पदार्थों का पृथककरण करके उनके घटक-द्रव्य अलग अलग निकाल लिये जाते हैं, उसी प्रकार ये दो विभाग आँखों के सामने पृथक पृथक नहीं रखे जा सकते; परंतु ज्ञान-दृष्टि से उन दोनों को अलग अलग करके शास्त्रीय उपपदान के सुभीते के लिये उनको क्रमश: ‘ब्रह्म’ और ‘माया’ तथा कभी कभी ‘ब्रह्म-सृष्टि’ और ‘माया-सृष्टि’ नाम दिया जाता है। तथापि स्मरण रहे कि ब्रह्ममूल से ही नित्य और सत्य है, इस कारण उसके साथ सृष्टि शब्द ऐसे अवसर पर अनुप्रासार्थ लगा रहता है, और ‘ब्रह्म-सृष्टि’ शब्द से यह मतलब नहीं है कि ब्रह्म को किसी ने उत्पन्न किया है।

इन दो सृष्टियों में से दिक्काल आदि नाम-रूपों से अमर्यादित, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमृत, स्वतंत्र और सारी दृश्य-सृष्टि के लिये आधारभूत हो कर उसके भीतर रहने वाली ब्रह्म-सृष्टि में, ज्ञानचक्षु से संचार करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप अथवा अपने परम साध्य का विचार पिछले प्रकरण में किया गया; और सच पूछिये तो शुद्ध अध्यात्मशास्त्र वहीं समाप्त हो गया। परंतु, मनुष्य का आत्मा यद्यपि आदि में ब्रह्म-सृष्टि का है, तथापि दृश्य-सृष्टि की अन्य वस्तुओं की तरह वह भी नाम-रूपात्मक देहेन्द्रियों से आच्छादित है और ये देहेन्द्रिय आदिक नाम-रूप विनाशी है; इसलिये प्रत्येक मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि इनसे छूट कर अमृतत्त्व कैसे प्राप्त करूँ। और, इस इच्छा की पूर्ति के लिये मनुष्य को व्यवहार में कैसे चलना चाहिये – कर्मयोग-शास्त्र के इस विषय का विचार करने के लिये, कर्म के कायदों से बँधी हुई अनित्य माया-सृष्टि के द्वैती प्रदेश में ही अब हमें आना चाहिये। पिण्ड और ब्रह्माण्ड, दोनों के मूल में यदि एक ही नित्य और स्वतंत्र आत्मा है, तो अब सहज ही प्रश्न होता है कि पिण्ड के आत्मा को ब्रह्माण्ड के आत्मा की पहचान हो जाने में कौन सी अड़चन रहती है और वह दूर कैसे हो?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. “कर्म से प्राणी बाँधा जाता है और विध्या से उसका छुटकारा हो जाता है।”
  2. महाभारत, शांति. 240.7।

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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