गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
अनंतर चौथे, पाँचवें और छठें प्रकरण में सुख:दुख विवेकपूर्वक यह बतलाया है, कि कर्मयोगशास्त्र की आधिभौतिक उपपत्ति एकदेशीय तथा अपूर्ण है और आधिदैविक उपपत्ति लँगड़ी है। फिर, कर्मयोग की आध्यात्मिक उपपत्ति बतलाने के पहले, यह जानने के लिये कि आत्मा किसे कहते हैं, छठें प्रकरण में ही पहले क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ- विचार और आगे सातवें तथा आठवें प्रकरण में सांख्य-शास्त्रंतर्गत द्वैत के अनुसार क्षर-अक्षरविचार किया गया है। अब इस प्रकरण में इस विषय का निरूपण किया गया है, कि आत्मा का स्वरूप क्या है, तथा पिण्ड और ब्रह्माण्ड में दोनों ओर एक ही अमृत और निर्गुण आत्मतत्त्व किस प्रकार ओत प्रोत और निरंतर व्याप्त है। इसी प्रकार यह भी निश्चित किया गया है, कि ऐसा समबुद्धि-योग प्राप्त करके कि सब प्राणियों में एक ही आत्मा है– उसे सदैव जागृत रखना ही आत्मज्ञान की और आत्मसुख की पराकाष्ठा है; तथा यह भी निश्चित किया गया है कि अपनी बुद्धि को इस प्रकार शुद्ध आत्मनिष्ठ अवस्था में पहुँचा देने में ही मनुष्य का मनुष्यत्व और नर-देह की सार्थकता या मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। इस प्रकार मनुष्य-जाति के आध्यात्मिक परम साध्य का निर्णय हो जाने पर कर्मयोगशास्त्र के इस मुख्य प्रश्न का भी निर्णय आप ही आप हो जाता है, कि संसार में हमें जो व्यवहार करना पड़ता है वह किस नीति-नियम की दृष्टि से किया जावे, अथवा जिस शुद्धि बुद्धि से सांसारिक व्यवहारों को करना चाहिये उसका यथार्थ स्वरूप क्या है। कारण यह है कि अब यह बतलाने की आवश्यकता नहीं, कि ये सारे व्यवहार उसी रीति से किये जावें जिससे वे परिणाम में ब्रह्मात्मैक्यरूप समबुद्धि के पोषक या अविरोधी हों। भगवद्गीता में कर्मयोग के इसी आध्यात्मिक तत्त्व का उपदेश अर्जुन को किया गया है। परंतु कर्मयोग का प्रतिपादन केवल इतने से पूरा नहीं होता। कुछ लोगों का कहना है, कि नाम- रूपात्मक सृष्टि के व्यवहार आत्मज्ञान के विरुद्ध हैं अतएव ज्ञानी पुरुष उनको छोड़ दे; और यदि यही बात सत्य हो, तो संसार के सारे व्यवहार त्याज्य समझे जायेंगे, और फिर कर्म-अकर्मशास्त्र भी निरर्थक हो जावेगा! अतएव इस विषय का निर्णय करने के लिये कर्मयोगशास्त्र में ऐसे प्रश्नों का भी विचार अवश्य करना पड़ता है, कि कर्म के नियम कौन से हैं और उनका परिणाम क्या होता है, अथवा बुद्धि की शुद्धता होने पर भी व्यवहार अर्थात कर्म क्यों करना चाहिये? भगवद्गीता में ऐसा विचार किया भी गया है। संन्यास- मार्ग वाले लोगों को इन प्रश्नों का कुछ भी महत्त्व नहीं जान पड़ता; अतएव ज्योंहि भगवद्गीता के वेदांत या भक्ति का निरूपण समाप्त हुआ, त्योंहि वे लोग अपनी पोथी को लपेटने लग जाते हैं। परन्तु ऐसा करना, हमारे मत से, गीता के मुख्य उद्देश की ओर ही दुर्लक्ष्य करना है। अतएव अब आगे क्रम क्रम से इस बात का विचार किया जायेगा, कि भगवद्गीता में उपर्युक्त प्रश्नों के क्या उत्तर दिये गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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