गीता रहस्य -तिलक पृ. 247


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

सिर्फ इतना कहो, कि यह बात समझ में नहीं आती कि मूल ब्रह्म से सत्‌ अर्थात प्रकृति कैसे निर्मित हुई। इसके लिये प्रकृति को स्वतंत्र मान लेने की ही कुछ आवश्यकता नहीं है। मनुष्य की बुद्धि को कौन कहे, परंतु देवताओं की दिव्य-बुद्धि से भी सत्‌ की उत्पत्ति का रहस्य समझ में आ जाना सम्भव नहीं; क्योंकि देवता भी दृश्य सृष्टि के प्रारम्भ होने पर उत्पन्न हुए हैं; उन्हें पिछला हाल क्या मालूम ?[1]। परंतु देवताओं से भी हिरण्यगर्भ तो बहुत प्राचीन और श्रेष्ठ है न? ऋग्वेद में ही कहा है, कि आरम्भ में वही अकेला “भूतस्य जात: पति-रेक आसीत”[2] सारी सृष्टि का ‘पति’ अर्थात राजा या अध्यक्ष था। फिर उसे यह बात क्योंकर मालूम न होगी? और यदि कहें कि उसे मालूम होगी; तो फिर कोई पूछ सकता है कि इस बात को दुर्बोध या अगम्य क्यों कहते हो? अतएव इस सूक्त के ऋषि ने पहले तो उक्त प्रश्न का यह औपचारिक उत्तर दिया है कि “हाँ; वह इस बात को जानता होगा;” परंतु अपनी बुद्धि से ब्रह्मदेव के भी ज्ञान-सागर की थाह लेनेवाले इस ऋषि ने आश्‍चर्य से साशंक हो तुरंत ही अंत में कह दिया है, कि “अथवा, न भी जानता हो! कौन कह सकता है?

क्योंकि वह भी सत्‌ ही की श्रेणी में है इसलिये ‘परम’ कहलाने पर भी ‘आकाश’ ही में रहनेवाले जगत के इस अध्यक्ष को सत्‌, असत्‌, आकाश और जल के भी पूर्व की बातों का ज्ञान निश्चित रूप से कैसे हो सकता है?” परंतु यद्यपि यह बात समझ में नहीं आती कि एक ‘असत्‌’ अर्थात अव्यक्त और निर्गुण द्रव्य ही के साथ विविध नाम-रूपात्मक सत्‌ का अर्थात मूल प्रकृति का सम्बन्ध कैसे हो गया, तथापि मूलब्रह्म के एकत्व के विषय में ऋषि ने अपने अद्वैत-भाव को डिगने नहीं दिया है! यह इस बात का एक उत्तम उदाहरण है, कि सात्त्विक श्रद्धा और निर्मल प्रतिभा के बल पर मनुष्य की बुद्धि अचिंत्य वस्तुओं के सघन वन में सिंह के समान निर्भय हो कैसे संचार किया करती है! और वहाँ की अतर्क्य बातों का यथाशक्ति कैसे निश्चय किया करती है! यह तो सचमुच ही आश्चर्य तथा गौरव की बात है कि ऐसा सूक्त ऋग्वेद में पाया जाता है! हमारे देश में इस सूक्त के ही विषय का आगे ब्राह्मणों[3]) में, उपनिषदों में और अनंतर वेदांतशास्त्रों के ग्रंथों में सूक्ष्म रीति से विवेचन किया है। इसी प्रकार पश्चिमी देशों में अर्वाचीन काल के कांट इत्यादि तत्त्वज्ञानियों ने भी अत्यंत सूक्ष्म परीक्षण किया है। परंतु स्मरण रहे कि सूक्त के ऋषि की पवित्र बुद्धि में जिन परम सिद्धांतो की [4] स्फूर्ति हुई है।

वही सिद्धांत आगे प्रतिपक्षियों को विवर्त-वाद के समान उचित उत्तर दे कर और भी दृढ़, स्पष्ट या तर्कदृष्टि से नि:सन्देह कर दिये गये हैं– इसके परे अभी तक न कोई बढ़ा है और न बढ़ने की विशेष आशा की जा सकती है। अध्यात्म प्रकरण समाप्त हुआ! अब आगे चलने के पहले ‘केसरी’ की चाल के अनुसार उस मार्ग का कुछ निरीक्षण हो जाना चाहिये कि जो यहाँ तक चल आये हैं। कारण यह है के यदि इस प्रकार सिंहावलोकन न किया जावे, तो विषयानुसन्धान के चूक जाने से सम्भव है कि और किसी अन्य मार्ग में संचार होने लगे। ग्रंथारम्भ में पाठकों को विषय में प्रवेश कराके कर्म-जिज्ञासा का संक्षिप्त स्वरूप बतलाया है और तीसरे प्रकरण में यह दिखलाया है कि कर्मयोगशास्त्र ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 10. 2 देखो
  2. ऋ. 10.121.1
  3. तैत्ति. ब्रा. 2.8. 9
  4. गी. र. 33

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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