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नवां प्रकरण
सारे वेदांतशास्त्र का रहस्य यही है, कि नेत्रों को या सामान्यत: सब इन्द्रियों को गोचर होने वाले विकारी और विनाशी नाम-रूपात्मक अनेक दृश्यों के फंदे में फँसे न रहकर ज्ञानदृष्टि से यह जानना चाहिये, कि इस दृश्य के परे कोई न कोई एक और अमृत तत्त्व है। इस मक्खन के गोले को ही पाने के लिये उक्त सूक्त के ऋषि की बुद्धि एकदम दौड़ पड़ी है, इससे यह स्पष्ट देख पड़ता है कि उनका अंतर्ज्ञान कितना तीव्र था! मूलारम्भ में अर्थात सृष्टि के सारे पदार्थो के उत्पन्न होने के पहले जो कुछ था, वह सत् था या असत्, मृत्यु था या अमर, आकाश था या जल, प्रकाश था या अन्धकार?– ऐसे अनेक प्रश्न करने वालों के साथ वाद-विवाद न करते हुए, उक्त ऋषि सब के आगे दौड़ कर यह कहते हैं कि सत् और असत्, मर्त्य और अमर, अन्धकार और प्रकाश, आच्छादन करने वाला और आच्छादित, सुख देने वाला और उसका अनुभव करने वाला, ऐसे द्वैत की परस्पर-सापेक्ष भाषा दृश्य सृष्टि की उत्पत्ति के अनंतर की है; अतएव सृष्टि में इन द्वंद्वों के उत्पन्न होने के पूर्व अर्थात जब 'एक और दूसरा' यह भेद ही न था तब, कौन किसे आच्छादित करता?
इसलिये आरम्भ ही में इस सूक्त के ऋषि निर्भय हो कर यह कहते हैं, कि मूलारम्भ के एक द्रव्य को सत् या असत्, आकाश या जल, प्रकाश या अन्धकार, अमृत या मृत्यु, इत्यादि कोई भी परस्पर-सापेक्ष नाम देना उचित नहीं; जो कुछ था, वह इन सब पदार्थों से विलक्षण था और वह अकेला एक ही चारों ओर अपनी अपरम्पार शक्ति से स्फूर्तिमान था; उसकी जोड़ी में या उसे आच्छादित करने वाला अन्य कुछ भी न था। दूसरी ऋचा में ‘आनीत’ क्रियापद के ‘अन’ धातु का अर्थ है श्वासोच्छवास लेना या स्फुरण होना, और ‘प्राण’ शब्द भी उसी धातु से बना है; परंतु जो न सत् है और न असत्, उसके विषय में कौन कह सकता है कि वह सजीव प्राणियों के समान श्वासोच्छवास लेता था और श्वासोच्छवास के लिये वहाँ वायु ही कहाँ है? अतएव ‘आनीत’ पद के साथ ही– ‘अवात’= बिना वायु के, और ‘स्वधया’= स्वयं अपनी ही महिमा से-इन दोनों पदों को जोड कर “सृष्टि का मूलत्त्व, जड़ नहीं था” यह अद्वैतावस्था का अर्थ द्वैत की भाषा में बड़ी युक्ति से इस प्रकार कहा है, कि “वह एक बिना वायु के केवल अपनी ही शक्ति से श्वासोच्छवास लेता या स्फूर्तिमान होता था!” इसमें बाह्यदृष्टि से जो विरोध दिखाई देता है, वह द्वैती भाषा की अपूर्णता से उत्पन्न हुआ है।
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