गीता रहस्य -तिलक पृ. 243


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण
सूक्त तथा भाषांतर

 

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम
अध: स्विदासीदुपरि स्विदासीत ।
रेतोधा आसन्‌ महिमान आसन्‌
स्वधा अवस्तात प्रयति: परस्तात्‌ ॥5॥
5. (यह) रश्मि या किरण या धागा इनमें आड़ा फैल गया; और यदि कहें कि यह नीचे था तो यह ऊपर भी था। (इनमें से कुछ) रेतोधा अर्थात बीजप्रद हुए और (बढ़कर) बड़े भी हुए। उन्हीं की स्वशक्ति इस ओर रही और प्रयति अर्थात प्रभाव उस ओर (व्याप्त) हो रहा।
को श्रद्धा वेद क इह प्र वोचत्‌
कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।
अर्वाग देवा अस्य विसर्जनेना- य को वेद यत आबभूव ॥6॥
6. (सत्‌ का) यह विसर्ग यानी पसारा किससे या कहाँ से आया– यह (इससे अधिक) प्र यानी विस्तारपूर्वक यहाँ कौन कहेगा? इसे कौन निश्च्यात्मक जानता है? देव भी इस (सत सृष्टि के) विसर्ग के पश्चात् हुए है। फिर वह जहाँ से हुई, उसे कौन जानेगा?
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव
यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्य्क्ष:परमे व्योमन्‌
सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
7. (सत का) यह विसर्ग अर्थात फैलाव जहाँ से हुआ अथवा– उसे परम आकाश में रहने वाला इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (हिरण्यगर्भ) है, वही जानता होगा; या न भी जानता हो! (कौन कह सके?)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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