गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
सूक्त तथा भाषांतर
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋचा तीसरी– कुछ लोग इसके प्रथम तीन चरणों को स्वतंत्र मानकर उनका ऐसा विधानात्मक अर्थ करते हैं, कि “अन्धकार, अन्धकार से व्याप्त पानी, या तुच्छ से आच्छादित आभु (पोलापन) था।” परंतु हमारे मत से यह भूल है। क्योंकि पहली दो ऋचाओं में जबकि ऐसी स्पष्ट उक्ति है, कि मूलारम्भ में कुछ भी न था; तब उसके विपरीत इसी सूक्त में यह कहा जाना सम्भव नहीं, कि मूलारम्भ में अन्धकार या पानी था। अच्छा; यदि वैसा अर्थ करें भी, तो तीसरे चरण के यत शब्द को निरर्थक मानना होगा। अतएव तीसरे चरण के ‘यत’ का चौथे चरण के ‘तत’ से सम्बन्ध लगा कर, जैसा कि हम ने ऊपर किया है, अर्थ करना आवश्यक है। ‘मूलारंभ में पानी वगैरह पदार्थ थे’ ऐसा कहने वालों को उत्तर देने के लिये इस सूक्त में यह ऋचा आई है; और इसमें ऋषि का उद्देश्य यह बतलाने का है, कि तुम्हारे कथनानुसार मूल में तम, पानी इत्यादि पदार्थ न थे, किंतु एक ब्रह्म का ही आगे यह सब विस्तार हुआ है। ‘तुच्छ’ और ‘आभु’ ये शब्द एक दूसरे के प्रतियोगी हैं, अतएव तुच्छ के विपरीत आभु शब्द का अर्थ प्रयोग हुआ है, वहाँ सायणाचार्य ने भी उसका यही अर्थ किया है (ऋ. 10.27.1,4)। पंचदशी (चित्र. 129,130) में तुच्छ शब्द का उपयोग माया के लिये किया गया है (नृसिं. उत्त. 9 देखो), अर्थात ‘आभु’ का अर्थ पोलापन न हो कर ‘परब्रह्म’ ही होता है। ‘सर्वे आ:इदम’- वहाँ आ: (आ+अस) अस् धातु का भूतकाल है और इसका अर्थ ‘आसीत’ होता है
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