गीता रहस्य -तिलक पृ. 242


गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
नवां प्रकरण
सूक्त तथा भाषांतर

 
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽ-
प्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छेनाम्वपिहितं यदासीत्
तपसस्तन्महिनाऽजायतैकम्॥3॥
3. जो (यत) ऐसा कहा जाता है कि, अन्धकार था, आरम्भ में यह सब अंधकार से व्याप्त (और) भेदाभेद-रहित जल था, (या) आभु अर्थात सर्वव्यापी ब्रह्म (पहले ही) तुच्छ से अर्थात झूठी माया से आच्छादित था, वह (तत) मूल में एक (ब्रह्म ही) तप की महिमा से (आगे रूपांतर से) प्रगट हुआ था[1]
कामस्तदग्रे समवर्तताधि
मनसो रेत: प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन
ह्रदि प्रतीष्या कदयो मनीषा॥ 4 ॥
4. इसके मन का जो रेत अर्थात बीज प्रथमत: निकला, वही आरम्भ में काम (अर्थात सृष्टि निर्माण करने की प्रवृति या शक्ति) हुआ। ज्ञाताओं ने अंत:करण में विचार करके बुद्धि से निश्चित किया, कि (यही) असत में अर्थात मूल परब्रह्म में सत का यानी विनाशी दृश्य सृष्टि का (पहला) सम्बंध है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋचा तीसरी– कुछ लोग इसके प्रथम तीन चरणों को स्वतंत्र मानकर उनका ऐसा विधानात्मक अर्थ करते हैं, कि “अन्धकार, अन्धकार से व्याप्त पानी, या तुच्छ से आच्छादित आभु (पोलापन) था।” परंतु हमारे मत से यह भूल है। क्योंकि पहली दो ऋचाओं में जबकि ऐसी स्पष्ट उक्ति है, कि मूलारम्भ में कुछ भी न था; तब उसके विपरीत इसी सूक्त में यह कहा जाना सम्भव नहीं, कि मूलारम्भ में अन्धकार या पानी था। अच्छा; यदि वैसा अर्थ करें भी, तो तीसरे चरण के यत शब्द को निरर्थक मानना होगा। अतएव तीसरे चरण के ‘यत’ का चौथे चरण के ‘तत’ से सम्बन्ध लगा कर, जैसा कि हम ने ऊपर किया है, अर्थ करना आवश्यक है। ‘मूलारंभ में पानी वगैरह पदार्थ थे’ ऐसा कहने वालों को उत्तर देने के लिये इस सूक्त में यह ऋचा आई है; और इसमें ऋषि का उद्देश्य यह बतलाने का है, कि तुम्हारे कथनानुसार मूल में तम, पानी इत्यादि पदार्थ न थे, किंतु एक ब्रह्म का ही आगे यह सब विस्तार हुआ है। ‘तुच्छ’ और ‘आभु’ ये शब्द एक दूसरे के प्रतियोगी हैं, अतएव तुच्छ के विपरीत आभु शब्द का अर्थ प्रयोग हुआ है, वहाँ सायणाचार्य ने भी उसका यही अर्थ किया है (ऋ. 10.27.1,4)। पंचदशी (चित्र. 129,130) में तुच्छ शब्द का उपयोग माया के लिये किया गया है (नृसिं. उत्त. 9 देखो), अर्थात ‘आभु’ का अर्थ पोलापन न हो कर ‘परब्रह्म’ ही होता है। ‘सर्वे आ:इदम’- वहाँ आ: (आ+अस) अस् धातु का भूतकाल है और इसका अर्थ ‘आसीत’ होता है

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः