गीता रहस्य -तिलक पृ. 239

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में जैसे विचार इस सूक्त में प्रदर्शित किये गये हैं वैसे प्रगल्भ, स्वतंत्र और जड़ तक की खोज करने वाले तत्त्वज्ञान के मार्मिक विचार अन्य किसी भी धर्म के मूलग्रंथो में दिखाई नहीं देते। इतना ही नहीं; किंतु ऐसे अध्यात्म-विचारों से परिपूर्ण और इतना प्राचीन लेख भी अब तक कहीं उपलब्ध नहीं हुआ है। इसलिये अनेक पश्चिमी पंडितों ने धार्मिक इतिहास की दृष्टि से भी इस सूक्त को अत्यंत महत्त्वपूर्ण जानकर आश्चर्यचकित हो अपनी अपनी भाषाओं में इसका अनुवाद यह दिखलाने के लिये किया है, कि मनुष्य के मन की प्रवृति इस नाशवान और नाम-रूपात्मक सृष्टि के परे नित्य और अचिंत्य ब्रह्म-शक्ति की ओर सहज ही कैसे झुक जाया करती है। यह ऋग्वेद के दसवें मंडल का 129वां सूक्त है; और इसके आदि शब्दों से इसे “नासदीय-सूक्त” कहते हैं। यही सूक्त तैतिरीय ब्राह्मण[1] में लिया गया है और महाभारतांतर्गत नारायणीय या भागवत-धर्म में इसी सूक्त के आधार पर यह बात बतलाई गई है कि भगवान की इच्छा से पहले पहल सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई[2]

सर्वानुक्रमणिका के अनुसार इस सूक्त के ऋषि परमेष्ठि प्रजापति हैं और देवता परमात्मा है, तथा इसमें त्रिष्टुप वृत के यानी ग्यारह अक्षरों के चार चरणों की सात ऋचाएँ हैं। ‘सत’ और ‘असत’ शब्दों के दो अर्थ होते हैं; अतएव सृष्टि के मूलद्रव्य को ‘सत’ कहने के विषय में उप-निषत्कारों के जिस मतभेद का उल्लेख पहले हम इस प्रकरण में कर चुके हैं, वही मतभेद ऋग्वेद में भी पाया जाता है। उदाहरणार्थ, इस मूल कारण के विषय में कहीं तो यह कहा है कि “एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति”[3]अथवा “एकं संतं बहुधा कल्पयन्ति”[4]- वह एक और सत् यानी सदैव स्थिर रहने वाला है, परंतु उसी को लोग अनेक नामों से पुकारते हैं; और कहीं कहीं इसके विरुद्ध यह भी कहा है कि “देवानां पूर्व्ये युगेऽसत: समजायत”[5]– देवताओं के भी पहले असत् से अर्थात अव्यक्त से ‘सत’ अर्थात व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई। इसके अतिरिक्त, किसी न किसी एक दृश्य तत्त्व से सृष्टि की उत्पत्ति होने के विषय में ऋग्वेद ही भिन्न भिन्न अनेक वर्णन पाये जाते है; जैसे सृष्टि के आरम्भ में मूल हिरण्यगर्भ था, अमृत और मृत्यु दोनों उसकी छाया हैं, और आगे उसी से सृष्टि निर्मित हुई है[6]; पहले विराट रूपी पुरुष था, और उससे यज्ञ के द्वारा सारी सृष्टि उत्पन्न हुई (ऋ. 10.90); पहले पानी (आप) था, और उसमें प्रजापति उत्पन्न हुआ[7]; ऋत और सत्य पहले उत्पन्न हुए, फिर रात्रि (अन्धकार), और उसके आगे समुद्र (पानी), संवत्सर इत्यादि उत्पन्न हुए[8]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.8.9
  2. मभा.शां 342.8
  3. ऋ.1.164.46
  4. ऋ.1.114. 5
  5. ऋ.10.72.7
  6. ऋ. 10.121.1, 2
  7. ऋ. 10. 72. 6; 10. 82. 6
  8. ऋ. 10.190.1

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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