गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
यह नहीं समझना चाहिये, कि जैसे सांख्यवादी ‘त्रिगुणातीत’ पद से प्रकृति और पुरुष दोनों को स्वतंत्र मान कर पुरुष के केवलपन या ‘कैवल्य’ को मोक्ष मानते हैं, वैसा ही मोक्ष गीता को भी समझते है; किंतु गीता का अभिप्राय यह है, कि अध्यात्मशास्त्र में कही गई ब्रह्मी अवस्था “अहं ब्रह्मास्मि”- मैं ही ब्रह्म हूँ [1]- कभी तो भक्तिमार्ग से, कभी चित्त-निरोधरूप पातंजल योगमार्ग से, और कभी गुणागुण-विवेचनरूप सांख्य-मार्ग से भी प्राप्ति होती है। इन मार्गो में अध्यात्मविचार केवल बुद्धि गम्य मार्ग है, इसलिये गीता में कहा है कि सामान्य मनुष्यों को परमेश्वर-स्वरूप का ज्ञान होने के लिये भक्ति ही सुगम साधन है। इस साधन का विस्तार-पूर्वक विचार हमने आगे चल कर तेरहेवें प्रकरण में किया है। साधन कुछ भी हो; इतनी बात तो निर्विवाद है, कि ब्रह्मात्मैक्य का अर्थात सच्चे परमेश्वर-स्वरूप का ज्ञान होना, सब प्राणियों में एक ही आत्मा को पहचानना और उसी भाव के अनुसार बर्ताव करना ही अध्यात्म-ज्ञान की परमावधि है; तथा यह अवस्था जिसे प्राप्त हो जाये वही पुरुष धन्य तथा कृतकृत्य होता है। यह पहले ही बतला चुके है, कि केवल इन्द्रिय-सुख पशुओं और मनुष्यों को एक ही समान होता है इसलिये मनुष्य-जन्म की सार्थकता अथवा मनुष्य की अथवा मनुष्य की मानुषता ज्ञान-प्राप्ति ही में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृ.1.4.10
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