गीता रहस्य -तिलक पृ. 227

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इसे दूर करने के लिये ही विवर्त-वाद निकला है। परन्तु इसी से कुछ लोग जो यह समझ बैठे हैं, वेदान्ती लोग गुणपरिणाम-वाद को कभी स्वीकार नहीं करते हैं अथवा आगे कभी न करेंगे, यह उनकी भूल है। अद्वैत मत पर, सांख्यमत वालों का अथवा अन्यान्य द्वैतमत-वालों का भी जो यह मुख्य आक्षेप रहता है कि निर्गुण ब्रह्मा से सगुण प्रकृति का अर्थात माया का उद्रम हो नहीं सकता, सो यह आक्षेप कुछ अपरिहार्य नहीं है। विवर्तवाद का मुख्य उद्देश इतना ही दिखला देना है कि, एक ही निर्गुण ब्रह्म में माया के अनेक दृश्यों का हमारी इन्द्रियों को दिख पड़ना सम्भव है। यह उद्देश सफल हो जाने पर, अर्थात् जहाँ विवर्त-वाद से यह सिद्ध हुआ कि निर्गुण परब्रह्म में ही त्रिगुणात्मक सगुण प्रकृति के दृश्य का दिख पड़ना शक्य है वहां, वेदान्तशास़्त्र को यह स्वीकार करने में कोई भी हानि नहीं कि, इस प्रकृति का अगला विस्तार गुण-परिणाम से हुआ है। अद्वैत वेदान्त का मुख्य कथन यही है कि स्वयं मूल प्रकृति एक दृश्य है- सत्य नहीं हैं। जहाँ प्रकृति का दृश्य एक बार दिखाई देने लगा, वहाँ फिर इन दृश्यों से आगे चल कर निकलने वाले दूसरे दृश्यों को स्वतऩ्त्र न मान कर अद्वैत वेदान्त को यह मान लेने में कुछ भी आपत्ति नहीं है कि यह दृश्य के गुणों से दूसरे दृश्य के गुण और दूसरे से तीसरे आदि के इस प्रकार नाना-गुणात्मक दृश्य उत्पन्न होते हैं।

अतएव यद्यपि गीता में भगवान् ने बतलाया है कि “यह प्रकृति मेरी ही माया है’’[1], फिर भी गीता में ही यह कह दिया है कि ईश्वर के द्वारा अधिष्ठित[2] इस प्रकृति का अगला विस्तार इस “गुणा गुणोषु वर्तन्ते’’[3] के न्याय से ही होता रहता है। इससे ज्ञात होता है कि विवर्तवाद के अनुसार मूल निर्गुण परब्रह्म में एक बार माया का दृश्य उत्पन्न हो चुकने पर, इस मायिक दृश्य की, अर्थात् प्रकृति के अगले विस्तार की, उपपत्ति के लिये गुणोत्कर्ष का तत्त्व गीता को भी मान्य हो चुका है। जब समूचे दृश्य जगत् को ही एक बार मायात्मक दृश्य कह दिया, तब यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि इन दृश्यों के अन्यान्य रूपों के लिये गुणोत्कर्ष के ऐसे कुछ नियम होने ही चाहिये। वेदान्तियों को यह अस्वीकार नहीं है कि मायात्मक दृश्य का विस्तार भी नियमबद्ध ही रहता है। उनका तो इतना ही कहना है कि, मूल प्रकृति के समान ये नियम भी मायिक ही हैं और परेमश्वर इन सब मायिक नियमों का अधिपति है। वह इनसे परे है, और उसकी सत्ता से ही इन नियमों को नियमत्व अर्थात् नित्यता प्राप्त हो गई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.7.14; 4.6
  2. गी.9.10
  3. गी. 3.28; 14.23

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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