गीता रहस्य -तिलक पृ. 224

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

अतएव जिस अध्यायत्मशास्‍त्रमें यह विचार करना होता है कि जगत् के मूल में वर्तमान सत्य का मूल स्वरूप क्या है, उसमें मानवी इन्द्रियों की सापेक्ष दृष्टि छोड़ देनी पड़ती है और जितना हो सके उतना, बुद्धि से ही अन्तिम विचार करना पड़ता है। ऐसा करने से इन्द्रियों को गोचर होने वाले सभी गुण आप ही आप छूट जाते हैं और यह सिद्ध हो जाता है कि ब्रह्म का नित्य स्वरूप इन्द्रियातीत अर्थात् निर्गुण एवं सब में श्रेष्ठ है। परन्तु अब प्रश्न होता है कि जो निर्गुण है, उसका वर्णन करेगा ही कौन, और किस प्रकार करेगा? इसी लिये अद्वैत वेदान्त में यह सिद्धान्त किया गया है कि परब्रह्म का अन्तिम अर्थात् निरपेक्ष और नित्य स्वरूप निर्गुण तो है ही, पर अनिर्वाच्य भी है; और इसी निर्गुण स्वरूप में मनुष्य को अपनी इन्द्रियों के योग से सगुण दृश्य की झलक देख पड़ती है। अब यहाँ फिर प्रश्न होता है कि, निर्गुण को सगुण करने की यह शक्ति इन्द्रियों ने पा कहाँ से ली? इस पर अद्वैत वेदान्तशास्‍त्र का यह उत्तर है कि मानवी ज्ञान की गति यहीं तक है, इसके आगे उसकी गुजर नहीं, इसलिये यह इन्द्रियों का अज्ञान है और निगुर्ण परब्रह्म में ब्रह्मगुण जगत् का दृश्य देखना उसी अज्ञान का परिणाम है; अथवा यहाँ इतना ही निश्चित अनुमान करके निश्चित हो जाना पड़ता है कि इन्द्रियां भी परमेश्वर की ही सृष्टि की हैं, इस कारण यह सगुण सृष्टि (प्रकृति) निर्गुण परमेश्वर की ही एक ‘दैवी माया’ है[1]

पाठकों की समझ में अब गीता के इस वर्णन का तत्त्व आ जावेगा, कि केवल इन्द्रियों से देखने वाले अप्रबुद्ध लोगों को परमेश्वर व्यक्त और सगुण देख पड़े सही; पर उसका सच्चा और श्रेष्ठ स्वरूप निर्गुण है, उसको ज्ञान-दृष्टि से देखने में ही ज्ञान की परमावधि है[2]। इस प्रकार निर्णय तो कर दिया कि परमेश्वर मूल में निर्गुण है और मनुष्य की इन्द्रियों को उसी में सगुण सृष्टि का विविध दृश्य देख पड़ता है; फिर भी इस बात पर थोड़ा सा खुलासा कर देना आवश्यक है कि उक्त सिद्धान्त में ‘निर्गुण’ शब्द का अर्थ क्या समझा जावे। यह सच है कि हवा की लहरों पर शब्द-रूप आदि गुणों का अथवा सीपी पर चांदी का जब हमारी इन्द्रियां अध्यारोप करती हैं, तब हवा की लहरों में शब्द-रूप आदि के अथवा सीप में चांदी के गुण नहीं होते; परन्तु यद्यपि उनमें अध्यारोपित गुण न हों तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उनसे भिन्न गुण मूल पदार्थों में होंगे ही नहीं। क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि यद्यपि सीप में चांदी के गुण नही हैं, तो भी चांदी के गुणों के अतिरिक्त और दूसरे गुण उसमें रहते ही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी 7.14
  2. गी.7.14,24,25

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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