गीता रहस्य -तिलक पृ. 222

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

यही कारण है जो वे निर्गुण पुरुष से सगुण प्रकृति की उत्पत्ति का विवेचन सत्कार्य-वाद के अनुसार कर नहीं सकते। किन्तु अद्वैत वेदान्त का सिद्धान्त यह है कि माया अनादि बनी रहे, फिर भी वह सत्य और स्वतंत्र नहीं है, वह तो गीता के कथानुसार ‘मोह’ ‘अज्ञान’ अथवा ‘इन्द्रियों’ को दिखाई देने वाला दृश्‍य’ है; इसलिये सत्कार्य-वाद से जो आक्षेप निष्पन्न हुआ था, उसका उपयोग अद्वैत सिद्धान्त के लिये किया ही नहीं जा सकता। बाप से लड़का पैदा हो, तो कहेंगे कि वह इसके गुण-परिणाम से हुआ है; परन्तु पिता एक व्यक्ति है और जब कभी वह बच्चे का, कभी जवान का और कभी बुढ्ढे का स्वांग बनाये हुए देख पड़ता है, तब हम सदैव देखा करते हैं कि इस व्यक्ति में और इसके अनेक स्वांगों में गुण-परिणामरूपी कार्य-कारणभाव नहीं रहता। ऐसे ही जब निश्चित हो जाता है कि सूर्य एक ही है, तब पानी में आंखों को दिखाई देने वाले उसके प्रतिबिम्ब को हम भ्रम कह देते हैं और उसे गुण-परिणाम से उपजा हुआ दूसरा सूर्य नहीं मानते। इसी प्रकार दूरबीन से किसी ग्रह के यथार्थ स्वरूप का निश्चय हो जाने पर ज्योतिःशास्त्र स्पष्ट कह देता है कि उस ग्रह का जो स्वरूप निरी आंखों से देख पड़ता है वह, दृष्टि की कमज़ोरी और उसके अत्यन्त दूरी पर रहने के कारण, निरा दृश्य उत्पन्न हो गया है।

इससे प्रगट हो गया कि कोई भी बात नेत्र आदि इन्द्रियों के प्रत्यक्ष गोचर हो जाने से ही स्वतन्त्र और सत्य वस्तु मानी नहीं जा सकती। फिर इसी न्याय का अध्यात्मशास्त्र में भी उपयोग करके यदि यह कहें तो क्या हानि है कि, ज्ञान-चक्षुरूप दूरबीन से जिसका निश्चय कर लिया गया है, वह निर्गुण परब्रह सत्य है; और ज्ञानहीन चर्मचक्षुओं को जो नाम-रूप गोचर होता है वह इस परब्रह्म का कार्य नहीं है-वह तो इन्द्रियों की दुर्बलता से उपजा हुआ निरा भ्रम अर्थात् मोहात्मक दृश्य है। यहाँ पर यह आक्षेप ही नहीं फबता कि निर्गुणा से सगुणा उत्पन्न नहीं हो सकता। क्योंकि दोनो वस्तुएं एक श्रेणी की नहीं हैं, इनमें तो सत्य है और दूसरी है सिर्फ दृश्य; एवं अनुभव यह है कि मूल में एक ही वस्तु रहने पर भी, देखने वाले पुरुष के दृष्टि-भेद से, अज्ञान से अथवा नजरबन्दी से उस एक ही वस्तु के दृश्य बदलते रहते हैं। उदाहरणार्थ, कानों को सुनाई देने वाले शब्द और आंखों से दिखाई देने वाले रंग-इन्हीं दो गुणों को लीजिये। इनमें से कानों को जो शब्द या आवाज सुनाई देती है, उसकी सुक्ष्मता से जांच करके आधिभौतिक-शक्तियों ने पूर्णतया सिद्ध कर दिया है कि ‘शब्द’ या तो वायु की लहर है या गति है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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