गीता रहस्य -तिलक पृ. 221

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

ज्ञानदृष्टि से सारे नाम-रूपों को एक ओर निकाल देने पर एक ही अविकारी और निर्गुण तत्त्व स्थिर रह जाता है; अतएव पूर्ण और सूक्ष्म विचार करने पर अद्वैत सिद्धान्त को ही स्वीकार करना पड़ता है। जब इतना सिद्ध हो चुका, तब अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से विवेचन करना आवश्‍यक है कि इस एक निर्गुण और अव्यक्त द्रव्य से नाना प्रकार की व्यक्त सगुण सृष्टि क्योंकर उपजी। पहले बतला आये हैं कि सांख्यों ने तो निर्गुण पुरुष के साथ ही त्रिगुणात्मक अर्थात सगुण प्रकृति को अनादि और स्वतंत्र मान कर, इस प्रश्‍न को हल कर लिया है। किन्तु यदि इस प्रकार सगुण प्रकृति को स्वतंत्र मान लें तो जगत के मूलतत्त्व दो हुए जाते हैं; ऐसा करने से उस अद्वैत मत में बाधा आती है कि जिसका ऊपर अनेक कारणों के द्वारा पूर्णतया निश्‍चय कर लिया गया है। यदि सगुण प्रकृति को स्वतंत्र नहीं मानते हैं तो यह बतलाते नहीं बनता कि एक ही मूल निर्गुण द्रव्य से नानाविध सगुण सृष्टि कैसे उत्पन्न हो गई। क्योंकि सत्कार्य-वाद का सिद्धान्त यह है कि निर्गुण से सगुण-जो कुछ भी नहीं है उससे और कुछ -का उपजना शक्य नहीं है; और यह सिद्धान्त अद्वैत-वादियों को भी मान्य हो चुका है।

इसलिये दोनों ही ओर अड़चन है। फिर यह उलझन कैसे? बिना अद्वैत को छोड़े ही, निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति होने का मार्ग बतलाना है और सत्कार्य-वाद की दृष्टि से वह तो रुका हुआ सा ही है। सच्चा पेंच है-ऐसी वैसी उलझन नहीं है। और तो क्या, कुछ लोगों की समझ में, अद्वैत सिद्धान्त के मानने में यही ऐसी अड़चन है जो सब से मुख्य, पेचीदा और कठिन है। इसी अड़चन से छड़क कर वे द्वैत को अंगीकार कर लिया करते हैं। किन्तु अद्वैती पण्डितों ने अपनी बुद्धि के द्वारा इस विकट अड़चन के फन्दे से छूटने के लिये भी एक युक्तिसंगत बेजोड़ मार्ग ढूंढ़ लिया है। वे कहते हैं कि सत्कार्य-वाद अथवा गुणपरिणाम-वाद के सिद्धान्त का उपयोग तब होता है जब कार्य और कारण, दोनों एक ही श्रेणी के अथवा एक ही वर्ग के होते हैं; और इस कारण अद्वैती वेदान्ती भी इसे स्वीकार कर लेंगे कि सत्य और निर्गुण ब्रह्म से, सत्य और सगुण माया का उत्पन्न होना शक्य नहीं है। परन्तु यह स्वीकृति उस समय की है, जबकि दोनों पदार्थ सत्य हों; जहाँ एक पदार्थ सत्य है पर दूसरा उसका सिर्फ दृश्‍य है, वहाँ सत्कार्य-वाद का उपयोग नहीं होता। सांख्य मत-वाले ‘पुरुष’ के समान ही ‘प्रकृति’ को भी स्वतंत्र और सत्य पदार्थ मानते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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