गीता रहस्य -तिलक पृ. 219

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इससे तो कहीं अच्छा यह होगा कि सांख्यशास्‍त्र के मतानुसार प्रकृति के सदृश्‍य नाम-रूपात्मक व्यक्त सृष्टि के किसी सगुण परन्तु व्यक्त रूप को नित्य मान लिया जावे; और उस व्यक्त रूप के अभ्यन्तर में परब्रह्मरूप कोई दूसरा नित्य तत्त्व ऐसा ओत प्रोत भरा हुआ रखा जावे, जैसा कि किसी पेंच की नली में भाफ रहती है[1]; एवं इन दोनों में वैसी ही एकता मानी जावे जैसी कि दाड़िम या अनार के फल के भीतरी दानों के साथ रहती है। परन्तु हमारे मत में उपनिषदों के तात्पर्य का ऐसा विचार करना योग्य नहीं है। उपनिषदों में कहीं कहीं द्वैती और कहीं कहीं अद्वैती वर्णन पाये जाते हैं, सो इन दोनों की कुछ न कुछ एकवाक्यता करना तो ठीक है; परन्तु अद्वैत-वाद को मुख्य समझने और यह मान लेने से, कि जब निर्गुण ब्रह्म सगुण होने लगता है, तब उतने ही समय के लिये मायिक द्वैत की स्थिति प्राप्त सी जो जाती है, सब वचनों की जैसी व्यवस्था लगती है, वैसी व्यवस्था द्वैत पक्ष को प्रधान मानने से लगती नहीं है। उदाहरण लीजिये, इस ‘तत त्वमसि’ वाक्य के पद का अन्वय द्वैती मतानुसार कभी भी ठीक नहीं लगता, तो क्या इस अड़चन को द्वैत मत-वालों ने समझ ही नही पाया?

नहीं, समझा जरूर है, तभी तो वे इस महावाक्य का जैसा-तैसा अर्थ लगा कर अपने मन को समझा लेते हैं। ‘तत्त्व मसि’ को द्वैत वाले इस प्रकार उलझाते हैं —तत्त्वम=तस्‍य त्‍वम- अर्थात उसका तू है, कि जो कोई तुझसे भिन्न है; तू वही नहीं है। परन्तु जिसको संस्कृत का थोड़ा सा भी ज्ञान है, और जिसकी बुद्धि आग्रह में बंध नहीं गई है, वह तुरंत ताड़ लेगा कि यह खींचा-तानी का अर्थ ठीक नहीं है। कैवल्य उपनिषद[2] में तो ‘‘स त्वमेव त्वमेव तत’’ इस प्रकार ‘तत्’ और ‘त्वम’ को उलट-पलट कर उक्त महावाक्य के अद्वैतप्रधान होने का ही सिद्धान्त दर्शाया है। अब और क्या बतलावें? समस्त उपनिषदों का बहुत सा भाग निकाल डाले बिना अथवा जान-बूझ कर उस पर दुर्लक्ष्य किये बिना, उपनिषद शास्‍त्र में अद्वैत को छोड़ और कोई दूसरा रहस्य बतला देना सम्भव ही नहीं है। परन्तु ये वाद तो ऐसे हैं कि जिनका कोई और-छोर ही नहीं; तो फिर यहाँ हम इनकी विशेष चर्चा क्यों करें? जिन्हें अद्वैत के अतिरिक्त अन्‍य मत रुचते हों, वे खुशी से उन्हें स्वीकार कर लें। उन्हें रोकता कौन है? जिन उदार महात्माओं ने उपनिषदों में अपना यह स्पष्ट विश्‍वास बतलाया है कि ‘‘नेह नानास्ति किचंन ’’[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृ.3.7
  2. 1.16
  3. बृ.4.4.19; कठ. 4.11

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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