गीता रहस्य -तिलक पृ. 213

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

जब इस प्रकार ब्रह्मात्मैक्य का अनुभव हो जावे, तब यह भेद-भाव नहीं रह सकता कि ज्ञाता अर्थात् द्रष्टा भिन्न वस्तु है और ज्ञेय अर्थात् देखने की वस्तु अलग है। किन्तु इस विषय में शंका हो सकती है कि मनुष्य जब तक जीवित है, तब तक उसकी नेत्र आदि इन्द्रियां यदि छूट नही जाती हैं, तो इन्द्रियाँ पृथक हुई और उनको गोचर होने वाले विषय पृथक हुए- यह भेद छूटेगा तो कैसे? और यदि यह भेद नहीं छूटता, तो ब्रह्मात्मैक्य का अनुभव कैसे होगा? अब यदि इन्द्रिय-दृष्टि से ही विचार करें तो यह शंका एकाएक अनुचित भी नहीं जान पड़ती। परन्तु हां, गम्भीर विचार करने लगें तो जान पड़ेगा कि इन्द्रियां बाह्य विषयों को देखने का काम खुद मुख्तारी से- अपनी ही मर्जी से- नहीं किया करती हैं। पहले बतला दिया है कि ‘‘चक्षु: पश्‍यति रूपाणि मनसा न तु चक्षुषा’’[1]- किसी भी वस्तु को देखने के लिये (और सुनने आदि के लिये भी) नेत्रों को (ऐसे ही कान प्रभृति को भी) मन की सहायता आवश्‍यक है, यदि मन शून्य हो, किसी और विचार में डूबा हो, तो आंखों के आगे धरी हुई वस्तु भी नहीं सूझती।

व्यवहार में होने वाले इस अनुभव पर ध्यान देने से सहज ही अनुमान होता है कि नेत्र आदि इन्द्रियों के अनुसरण रहते हुए भी, मन को यदि उनमें से निकाल ले, तो इन्द्रियों के विषयों के द्वन्द्व बाह्य सृष्टि में वर्तमान होने पर भी अपने लिये न होने के समान रहेंगे। फिर परिणाम यह होगा कि मन केवल आत्मा में अर्थात् आत्म स्वरूपी ब्रह्म में ही रत रहेगा, इससे हमें ब्रह्यात्मैक्य का साक्षात्कार होने लगेगा। ध्यान से, समाधि से, एकान्त उपासना से अथवा अत्यन्त ब्रह्म-विचार करने से, अन्त में यह मानसिक स्थिति जिसको प्राप्त हो जाती है, फिर उसकी नजर के आगे दृश्‍य सृष्टि के द्वन्द्व या भेद नाचते भले रहा करें पर वह उनसे लापरवा है- उसे वे देख ही नहीं पड़तें और उसको अद्वैत ब्रह्म-स्वरूप का आप ही आप पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है। पूर्ण ब्रह्माज्ञान से अन्त में परमावधि की जो यह स्थिति प्राप्त होती है, इसमें ज्ञाता, श्रेय और ज्ञान का तिहरा भेद अर्थात त्रिपुटी नहीं रहती, अथवा उपास्य और उपासक का द्वैतभाव भी नहीं बचने पाता। अतएव यह अवस्था और किसी दूसरे को बतलाई नहीं जा सकती, क्‍योंकि ज्यों ही ‘दूसरे’ शब्द का उच्चारण किया, त्यों ही यह अवस्था बिगड़ी और फिर प्रगट ही है कि मनुष्य अद्वैत से द्वैत में आ जाता है। और तो क्या, यह कहना भी मुश्किल है कि मुझे इस अवस्था का ज्ञान हो गया। क्योंकि मैं कहते ही, औरों से भिन्न होने की भावना मन में आ जाती है, और ब्रह्यात्मैक्य होने में यह भावना पूरी बाधक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा.शां.311.17

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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