गीता रहस्य -तिलक पृ. 212

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

परंतु ब्रह्म इस प्रकार अज्ञेय और निर्गुण अतएव इन्द्रियातीत हो, तो भी यह प्रतीति हो सकती है कि परब्रह्म का भी वही स्‍वरूप है, जो कि हमारे निर्गुण तथा अनिर्वाच्य आत्मा का है और जिसे हम साक्षात्कार से पहचानते हैं; इसका कारण यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने आत्मा की साक्षात् प्रतीति होती ही है। अतएव अब यह सिद्धान्त निरर्थक नहीं हो सकता कि ब्रह्म और आत्मा एक-स्वरूपी है। इस दृष्टि से देखें तो ब्रह्म-स्वरूप के विषय में इसकी अपेक्षा कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता कि ब्रह्म आत्म-स्वरूपी है; शेष बातों के सम्बन्ध में अपने अनुभव को ही पूरा प्रमाण मानना पड़ता है। किन्तु बुद्धिगम्य शास्त्रीय प्रतिपादन में जितना शब्दों से हो सकता है, उतना खुलासा कर देना आवश्यक है। इसीलिये यद्यपि ब्रह्म सर्वत्र एक सा व्याप्त, अज्ञेय और अनिवार्य है; तो भी जड़ सृष्टि का और आत्मस्वरूपी ब्रह्मतत्त्व का भेद व्यक्त करने के लिये, आत्मा के सान्निध्य से जड़ प्रकृति में चैतन्यरूपी जो गुण हमें दृग्गोचर होता है, उसी को आत्मा का प्रधान लक्षण मान कर अध्यात्मशास्त्र में आत्मा और ब्रह्म दोनों को चिद्रूपी या चैतन्यरूपी कहते हैं।

क्योंकि यदि ऐसा न करें तो आत्मा और ब्रह्म दोनों ही निर्गुण, निरन्जन एवं अनिर्वाच्‍य होने के कारण उनके रूप का वर्णन करने में या तो चुप्पी साध जाना पड़ता है, या शब्दों में किसी ने कुछ वर्णन किया तो ‘‘नाहीं नाहीं” का यह मन्त्र रटना पड़ता है कि ‘‘नेति नेति एतस्मादन्यत्परमस्ति” -यह नहीं है, यह (ब्रह्म) नहीं है, (यह तो नाम-रूप हो गया), सच्चा ब्रह्म इससे परे ओर ही है; इस नकारात्मक पाठ का आवर्तन करने के अतिरिक्त और दूसरा मार्ग ही नहीं रह जाता[1]।यही कारण है जो सामान्य रीति से ब्रह्म के स्वरूप के लक्षण चित् (ज्ञान), सतृ (सत्तामात्रत्व अथवा अस्तित्व) और आनन्द बतलाये जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये लक्षण अन्य सभी लक्षणों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। फिर भी स्मरण रहे कि शब्दों से ब्रह्मस्वरूप की जितनी पहचान हो सकती है, उतनी ही करा देने क लिये ये लक्षण भी कहे गये हैं; वास्तविक ब्रह्मस्वरूप निर्गुण ही है, उसका ज्ञान होने के लिये उसका अपरोक्षानुभव ही होना चाहिये। यह अनुभव कैसे हो सकता है? इन्द्रियातीत होने कारण अनिर्वाय ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव ब्रह्मनिष्ठ पुरुष को कब और कैसे होता है-इस विषय में हमारे शास्त्रकारों ने जो विवेचन किया है, उसे यहाँ संक्षेप में बतलाते हैं। ब्रह्म और आत्मा की एकता के उक्त समीकरण का सरल भाषा में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं कि ‘जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृ. 2.3.6

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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