गीता रहस्य -तिलक पृ. 21

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

इस महत्पाप के भय से उसका मन एकदम दुःखित और क्षुब्ध हो गया। एक और तो क्षात्र धर्म उससे कह रहा था कि 'युद्धकर'; और, दूसरी और से पितृ भक्ति, गुरुभक्ति, बंधुप्रेम, सुहत्प्रीति आदि अनेक धर्म उसे जबरदस्ती से पीछे खींच रहे थे। यह बड़ा भारी संकट था। यदि लड़ाई करें तो अपने ही रिस्तेदारों की, गुरुजनों की और बंधु-मित्रों की हत्या करके महापातक के भागी बनें और लड़ाई न करें तो क्षात्रधर्म से च्युत होना पड़े। इधर देखो तो कुआँ और उधर देखो तो खाई। उस समय अर्जुन की अवस्था वैसी ही हो गई थी जैसी जोर से टकराती हुई दो रेलगाडियों के बीच में, किसी असहाय मनुष्‍य की हो जाती है। यद्यपि अर्जुन कोई साधारण पुरुष नहीं था- वह एक बड़ा भारी योद्धा था; तथापि धर्म अधर्म के इस महान संकट में पड़ कर बेचारे का मुंह सूख गया, शरीर पर रोंगटे खड़े हो गये, धनुष हाथ से गिर पड़ा और वह मैं नही लडूंगा कहकर अति दुःखितचित से रथ में बैठ गया! और, अंत में, समीपवर्ती बंधु स्नेह का प्रभाव- उस ममत्व का प्रभाव जो मनुष्यद को स्वभावतः प्रिय होता है- दूरवर्ती क्षत्रिय धर्म पर जम ही गया! तब वह मोह वश हो कहने लगा पिता-समपूज्य वृद्ध और गुरु जनों को, भाई- बंधुओं और मित्रों को मार कर तथा अपने कुल का क्षय करके ( घोर पाप करके ) राज्य का एक टुकड़ा पाने से तो टुकड़े मांगकर जीवन निर्वाह करना कही श्रेयस्कर हैं! चाहे मेरे शत्रु मुझे अभी निःशस्त्र देखकर मेरी गर्दन उड़ा दें परन्तु मैं अपने स्वजनों की हत्या करके उनके खून और शाप से सने हुए सुखों का उपभोग नहीं करना चाहता! क्या क्षात्रधर्म इसी को कहते हैं।
भाई को मारो, गुरु की हत्या करो, पितृवध करने से न चूको, अपने कुल का नाश करो- क्या यही क्षात्रधर्म हैं आग लगे ऐसे अनर्थकारी क्षात्रधर्म में और गाज गिरे ऐसी क्षात्र नितिपर! मेरे दुश्मनों को ये सब धर्म संबंधी बातें मालूम नहीं हैं; वे दुष्ट हैं; तो क्या उनके साथ मैं भी पापी हो जाऊं। कभी नहीं। मुझे यह देखना चाहिये कि मेरे आत्मा का कल्याण कैसे होगा। मुझे तो यह घोर हत्या और पाप करना श्रेयस्कर नहीं जंचता; फिर चाहे क्षात्र धर्मशास्त्र विहित हो, तो भी इस समय मुझे उसकी आवश्यकता नहीं हैं इस प्रकार विचार करते करते उसका चित ड़ावाडोल हो गया और वह किंकर्तव्य-विमूढ हो कर भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में गया। तब भगवान् ने उसे गीता का उपदेश देकर उसके चंचलचित का स्थिर और शांत कर दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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