गीता रहस्य -तिलक पृ. 209

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इनमें से ‘आत्मा’ मन और बुद्धि से परे अर्थात् इन्द्रियातीत है, तथापि अपने विश्वास के प्रमाण पर हम माना करते हैं कि आत्मा जड़ नहीं है; वह या तो चिद्रूपी है या चैतन्यरूपी है। इस प्रकार आत्मा के स्‍वरूप का निश्वय करके देखना है कि बाह्य सृष्टि के ब्रह्म का स्वरूप क्या है। इस विषय में यहाँ दो ही पक्ष हो सकते हैं; यह ब्रह्म या वस्तुतत्त्व

  1. आत्मा के स्‍वरूप का होगा या
  2. आत्मा से भिन्न स्वरूप का।

क्योंकि ब्रह्म और आत्मा के सिवा अब तीसरी वस्तु ही नहीं रह जाती। परन्तु सभी का अनुभव यह है कि यदि कोई भी दो पदार्थ स्‍वरूप से भिन्न हों तो उनके परिणाम अथवा कार्य भी भिन्न भिन्न होने चाहिये। अतएव हम लोग पदार्थों के भिन्न अथवा एकरूप होने का निर्णय उन पदार्थों के परिणामों से ही किसी भी शास्त्र में किया करते हैं। एक उदाहरण लीजिये, दो वृक्षों के फल, फूल, पत्ते, छिलके और जड़ को देख कर हम निश्वय करते हैं कि वे दोनों अलग-अलग हैं या एक ही हैं। यदि इसी रीति का अवलम्ब करके यहाँ विचार करें तो देख पड़ता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही स्वरूप के होंगे। क्योंकि ऊपर कहा जा चुका है कि सृष्टि के भिन्न भिन्न पदार्थों के जो संस्कार मन पर होते हैं उनका आत्मा की क्रिया से एकीकरण होता है; इस एकीकरण के साथ उस एकीकरण का मेल होना चाहिये कि जिसे भिन्न भिन्न बाह्य पदार्थों के मूल में रहने वाला वस्तुतत्त्व अर्थात् ब्रह्म इन पदार्थों की अनेकता को मेट कर निष्पन्न करता है; यदि इस प्रकार इन दोनों में मेल न होगा तो समूचा ज्ञान निराधार और असत्य हो जावेगा।

एक ही नमूने के और बिल्‍कुल एक दूसरे की जोड़ के एकीकरण करने वाले ये तत्त्व दो स्थानों पर भले ही हों परन्तु वे परस्पर भिन्न भिन्न नहीं रह सकते; अतएव यह आप ही सिद्ध होता है कि इनमें से आत्मा का जो रूप होगा, वही रूप ब्रह्म का भी होना चाहिये[1]। सारांश, किसी भी रीति से विचार क्यों न किया जाय, सिद्ध यही होगा कि बाह्य सृष्टि के नाम और रूप से आच्छादित ब्रह्मतत्त्व, नाम-रूपात्‍मक प्रकृति के समान जड़ तो है ही नहीं किन्तु वासनात्मक ब्रह्म, मनोमय ब्रह्म, ज्ञानमय ब्रह्म, प्राणब्रह्म अथवा ओमकाररूपी शब्दब्रह्म—ये ब्रह्म के रूप भी निम्न श्रेणी के हैं और ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप इनसे परे है एवं इनसे अधिक योग्यता का अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूपी है। और इस विषय का गीता में अनेक स्थानों पर जो उल्लेख है, उससे स्पष्ट होता है कि गीता का सिद्धान्त भी यही है[2]। फिर भी यह न समझ लेना चाहिये कि ब्रह्म और आत्मा के एकस्‍वरूप रहने के इस सिद्धान्त को हमारे ऋषियों ने ऐसी युक्ति-प्रयुक्तियों से ही पहले खोजा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Green's Prolegomena to Ethics, && 26-36.
  2. देखो गी. 2.20; 7.5; 8.4; 13.31; 15.7; 8

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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