गीता रहस्य -तिलक पृ. 208

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

वह आँखों से देख नहीं पड़ता; वह वाणी के और मन को भी अगोचर है- ‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।" फिर भी अध्यात्मशास्त्र ने निश्चय किया है कि इस अगम्य स्थिति में भी मनुष्य अपनी बुद्धि से ब्रह्म के स्वरूप का एक प्रकार से निर्णय कर सकता है। ऊपर जो वासना, स्मृति, धृति, आशा, प्राण और ज्ञान प्रभृति अव्यक्त पदार्थ बतलाये गये हैं, उनमें से जो सबसे अतिशय व्यापक अथवा सबसे श्रेष्ठ निर्णित हो, उसी को परब्रह्म का स्वरूप मानना चाहिये। क्योंकि यह तो निर्विवाद ही है कि सब अव्यक्त पदार्थों में परब्रह्म श्रेष्ठ है। अब इस दृष्टि से आशा, स्मृति, वासना और धृति आदि का विचार करें तो ये सब मन के धर्म हैं, अतएव इनकी अपेक्षा मन श्रेष्‍ठ हुआ, मन से श्रेष्‍ठ ज्ञान है और ज्ञान है बुद्धि का धर्म, अतः ज्ञान से बुद्धि श्रेष्ठ हुई; और अन्त में यह बुद्धि भी जिसकी नौकर है वह आत्मा ही सबसे श्रेष्ठ है[1]। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-प्रकरण में इसका विचार किया गया है। अब वासना और मन आदि सब अव्यक्त पदार्थों से यदि आत्मा श्रेष्ठ है, तो आप ही सिद्ध हो गया कि परब्रह्म का स्वरूप भी वही[2] आत्मा होगा।

छन्दोग्य उपनिषद के सातवें अध्याय में इसी युक्ति से काम लिया गया है; और सनत्कुमार ने नारद से कहा है कि वाणी की अपेक्षा मन अधिक योग्‍यता का (भूयस) है, मन से ज्ञान, ज्ञान से बल और इसी प्रकार चढ़ते-चढ़ते जबकि आत्‍मा सब से श्रेष्ट (भूमन) है, तब आत्मा ही को परब्रह्म का सच्चा स्वरूप कहना चाहिये। अंग्रेज ग्रन्थकारों में ग्रीन ने इसी सिद्धान्त को माना है; किन्तु उसकी युक्तियाँ कुछ कुछ भिन्न हैं। इसलिये यहाँ उन्हें संक्षेप से वेदान्त की परिभाषा में बतलाते हैं। ग्रीन का कथन है कि हमारे मन पर इन्द्रियों के द्वारा बाह्य नाम-रूप के जो संस्कार हुआ करते हैं, उनके एकीकरण से आत्मा को ज्ञान होता है; उस ज्ञान के मेल के लिये बाह्य सृष्टि के भिन्न-भिन्न नाम-रूपों के मूल में भी एकता से रहने वाली कोई न कोई वस्तु होनी चाहिये; नहीं तो आत्मा के एकीकरण से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्वकपोल-कल्पित और निराधार होकर विज्ञान-वाद के समान असत्य प्रमाणित हो जायगा। इस ‘कोई न कोई’ वस्तु को हम ब्रह्म कहते हैं; भेद इतना ही है कि कान्ट की परिभाषा को मान कर ग्रीन उसको वस्तुतत्त्व कहता है। कुछ भी कहो, अन्त में वस्तुतत्त्व (ब्रह्म) और आत्मा ये ही दो पदार्थ रह जाते हैं, कि जो परस्पर के मेल के हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 42
  2. गी. र. 29

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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