गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
सारे नाम-रूपात्मक पदार्थों के मूल में वर्तमान यह नित्यतत्त्व है अव्यक्त; इसलिय प्रगट ही है कि इसका स्वरूप नाम-रूपात्मक पदार्थों के समान व्यक्त और स्थूल (जड़) नहीं रह सकता। परन्तु यदि व्यक्त और स्थूल पदार्थोंको छोड़ दें, तो मन, स्मृति, वासना, प्राण और ज्ञान प्रभृति बहुत से ऐसे अव्यक्त पदार्थ हैं कि जो स्थूल नहीं हैं एवं यह असम्भव नहीं कि परब्रह्म इनमें से किसी भी एक-आध के स्वरूप का हो। कुछ लोग कहते हैं कि प्राण का और परब्रह्म का स्वरूप एक ही है। जर्मन पण्डित शोपेनहर ने परब्रह्म को वासनात्मक निश्चित किया है। और वासना मन का धर्म है, अतः इस मत के अनुसार ब्रह्म मनोमय ही कहा जावेगा[1]। परन्तु अब तक जो विवेचन हुआ है, उससे तो यही कहा जावेगा कि- ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’[2] अथवा ‘विज्ञानं ब्रह्म’[3] -जड़सृष्टि के नानात्त्व का जो ज्ञान एकत्त्वरूप से हमें होता है, वही ब्रह्म का स्वरूप होगा। हेगल का सिद्धान्त इसी ढँग का है। परन्तु उपनिषदों में, चिद्रूपी ज्ञान के साथ ही साथ सत् ( अर्थात् जगत् की सारी वस्तुओं के अस्तित्व के सामान्य धर्म या सत्ता-समानता ) का और आनन्द का भी ब्रह्म-स्वरूप में ही अन्तर्भाव करके ब्रह्म को सच्चिदानन्दरूपी माना है। इसके अतिरिक्त दूसरा ब्रह्म-स्वरूप कहना हो तो वह ओमकार है। इसकी उपपत्ति इस प्रकार है;- पहले समस्त अनादि वेद ओमकार से उपजे हैं; और वेदों के निकल चुकने पर, उनके नित्य शब्दों से ही आगे चलकर ब्रह्मा ने जब सारी सृष्टि का निर्माण किया है[4], तब मूल आरम्भ में ओमकार को छोड़ और कुछ न था। इससे सिद्ध होता है कि ओमकार ही सच्चा ब्रह्म-स्वरूप है[5]। परन्तु केवल अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से विचार किया जाय तो परब्रह्म के ये सभी स्वरूप थोडे़ बहुत नाम-रूपात्मक ही हैं। क्योंकि इन सभी स्वरूपों को मनुष्य अपनी इन्द्रियों से जान सकता है, और मनुष्य को इस रीति से जो कुछ ज्ञात हुआ करता है वह नाम-रूप की ही श्रेणी में है। फिर इस नाम-रूप के मूल में जो अनादि, भीतर-बाहर सर्वत्र एक सा भरा हुआ, एक ही नित्य और अमृत तत्त्व है[6], उसके वास्तविक स्वरूप का निर्णय हो तो क्योंकर हो? कितने ही अध्यात्मशास्त्री पण्डित कहते हैं कि कुछ भी हो, यह तत्त्व हमारी इन्द्रियों को अज्ञेय ही रहेगा; और कान्ट ने तो इस प्रश्न पर विचार करना ही छोड़ दिया है। इसी प्रकार उपनिषदों में भी परब्रह्म के अज्ञेय स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है;- ‘‘नेति नेति” अर्थात वह नहीं है कि जिसके विषय में कुछ कहा जा सकता है; ब्रह्म इससे परे है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तै. 3. 4
- ↑ ऐ. 3. 3
- ↑ तै. 3. 5
- ↑ गी. 17. 23; मभा. शां. 231. 56-58
- ↑ माण्डूक्य. 1; तैति. 1.8
- ↑ गी. 13. 12-17
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