गीता रहस्य -तिलक पृ. 205

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

अतः ‘सत्य’ शब्द के इसी प्रचलित अर्थ को लेकर उपनिषदों में कुछ स्थानों पर आँखों से देख पड़ने वाले नाम-रूपात्‍मक बाह्य पदार्थों को ‘सत्य’, और उन नाम-रूपों से आच्छादित द्रव्य को ‘अमृत’ नाम दिया गया है। उदाहरण लीजिये; बृहदारण्यक उपनिषद[1] में ‘‘तदे-तदमृतं सत्येनच्छन्नं” - वह अमृत सत्‍य से आच्छादित है- कह कर फिर अमृत और सत्य शब्दों की यह व्याख्या की है कि ‘‘प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्या-मयं प्राणश्छन्नः” अर्थात् प्राण अमृत है और नाम-रूप सत्य है, एवं इस नाम-रूप सत्‍य से प्राण ढँका हुआ है। यहाँ प्राण का अर्थ प्राण-स्वरूपी परब्रह्म है। इससे प्रगट है कि आगे के उपनिषदों में जिसे ‘मिथ्या’ और ‘सत्य’ कहा है, पहले उसी के नाम क्रम से ‘सत्य’ और ‘अमृत’ थे। अनेक स्थानों पर इसी अमृत को ‘सत्यस्य सत्यं’- आँखों से देख पड़ने वाले सत्य के भीतर का अन्तिम सत्[2] - कहा है। किन्तु उक्त आक्षेप इतने ही से सिद्ध नहीं हो जाता कि उपनिषदों में कुछ स्थानों पर आँखों से देख पड़ने वाली सृष्टि को ही सत्य कहा है। क्योंकि बृहदारण्यक में ही, अन्त में यह सिद्धान्त किया है कि आत्मरूप परब्रह्म को छोड़ और सब ‘आर्तम’ अर्थात् विनाशवान् है[3]

जब पहले पहल जगत के मूलतत्त्व की खोज होने लगी, तब शोधक लोग आँखों से देख पड़ने वाले जगत को पहले से ही सत्‍य मान कर ढूँढ़ने लगे कि उसके पेट में और कौन सा सूक्ष्म सत्य छिपा हुआ है। किन्तु फिर ज्ञात हुआ कि जिस दृश्य सृष्टि के रूप को हम सत्‍य मानते हैं, वह तो असल में विनाशवान है और उसके भीतर कोई अविनाशी या अमृत तत्त्व मौजूद है। दोनों के बीच के इस भेद को जैसे-जैसे अधिक व्यक्त करने की आवश्यकता होने लगी, वैसे ही वैसे ‘सत्य’ और ‘अमृत’ शब्दों के स्थान में ‘अविद्या’ और ‘विद्या’ एवं अन्‍त में ‘माया और ‘सत्‍य’ अथवा ‘मिथ्‍या और सत्‍य‘ इन पारिभाषिक शब्‍दों का प्रचार होता गया। क्योंकि ‘सत्य’ शब्द का धात्वर्थ ‘सदैव रहने वाला’ है, इस कारण नित्य बदलने वाले और नाशवान नाम-रूप का सत्य कहना उत्तरोतर और भी अनुचित जँचने लगा। परन्तु इस रीति से ‘माया अथवा मिथ्या’ शब्दों का प्रचार पीछे से भले ही हुआ है; तो भी ये विचार बहुत पुराने जमान से चले आ रहे है कि जगत् की वस्तुओं का वह दृश्य, जो नजर से देख पड़ता है, विनाशी और असत्‍य है; एवं उसका आधारभूत ‘तात्त्विक द्रव्य’ ही सत् या सत्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1. 6. 3
  2. बृ. 2. 3. 6
  3. बृ. 3. 723

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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