गीता रहस्य -तिलक पृ. 20

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

इस प्रकार जब वे पहले से निश्चित किये हुए अपने ही संप्रदाय के अर्थ को सत्य मानने लगते हैं, और यह सिद्ध कर दिखाने का यत्न करने लगते हैं कि वही अर्थ कि सब धार्मिक ग्रंथों में प्रतिपादित किया गया है, तब वे इस बात की परवा नहीं करते कि हम मीमांसाशास्त्र के कुछ नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। हिन्दु धर्मशास्त्र के मिताक्षरा, दायभाग इत्यादि ग्रंथों में स्मृति वचनों की व्यवस्था या एकता इसी तत्त्वानुसार की जाती है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि यह बात केवल हिन्दु धर्म ग्रंथों में ही पाई जाती है। क्रिस्तानों के आदिग्रंथ बाइबल और मुसलमानों के कुरान में भी, इन के सैकड़ों सांप्रदायिक ग्रंथकारों ने, ऐसा ही अर्थानन्तर कर दिया है; और इसी तरह ईसाइयों ने पुरानी बाइबल के कुछ वाक्यों का अर्थ यहूदियों से भिन्न माना है। यहाँ तक देखा जाता है कि, जब कभी यह बात पहले से ही निश्चित कर दी जाती है कि किसी विषय पर अमुक ग्रंथ या लेख ही को प्रमाण मानना चाहिये, और जब कभी इस प्रमाण भूत तथा नियमित ग्रंथ ही के आधार पर सब बातों का निर्णय करना पड़ता हैं तब तो ग्रंथार्थ- निर्णय की उसी पद्धति का स्वीकार किया जाता है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। आजकल के बड़े बड़े कायदे- पंडित, वकील और न्यायधीश लोग, पहले की प्रमाण भूत कानूनी किताबों और फैसलों का अर्थ करने में, जो खींचातानी करते हैं उसका रहस्य भी यही है।

यदि सामान्य लौकिक बातों में यह हाल है, तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि हमारे प्रमाणभूत धर्मग्रंथों, उपनिषद, वेदांत सूत्र और गीता- में भी ऐसी खींचातानी होने के कारण उन पर भिन्न-भिन्न संप्रदायों के अनेक भाष्‍य और टीका ग्रंथ लिखे जाते हैं। परन्तु इस सांप्रदायिक पद्धति को छोड़कर, यदि उपर्युक्त मीमांसकों की पद्धति से भगवद्भीता के उपक्रम, उपसंहार आदि को देखें; तो मालूम हो जावेगा कि भारतीय युद्ध का आरंभ होने के पहले जब कुरुक्षेत्र में दोनो पक्षों की सेनाए लड़ाई के लिये सुसज्जित हो गई थीं, और जब एक दूसरे पर शस्त्र चलने ही वाला था, कि इतने में अर्जुन ब्रह्मज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें बतलाने लगा और 'विमनस्क' हो कर संन्यास लेने को तैयार हो गया; तभी उसे अपने क्षात्रधर्म में प्रवृत करने के लिये भगवान ने गीता का उपदेश दिया है। जब अर्जुन यह देखने लगा कि दुष्ट दुर्योधन के सहायक बन कर मुझसे लड़ाई करने के लिये कौन कौन से शूरवीर यहा आये हैं; तब वृद्ध भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, गुरुपुत्र अश्वत्थामा, विपक्षी बने हुए अपने बंधु कौरव-गण, अन्य सुहत तथा आप्त, मामा- काका आदि रिश्तेदार, अनेक राजे और राजपुत्र आदि सब लोग उसे देख पड़े। तब वह मन में सोचने लगा कि इन सब को केवल एक छोटे से हस्तिनापुर के राज्य के लिये निर्दयता से मारना पड़ेगा और अपने कुल का क्षय करना पड़ेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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