गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
‘सब पदार्थों में इस रीति से नित्य रूप में सर्वदा होना’- संस्कृत में ‘सत्ता-सामान्यत्व’ कहलाता है। वेदान्तशास्त्र के उक्त सिद्धान्त को ही कान्ट आदि अर्वाचीन पश्चिमी तत्त्वज्ञानियों ने भी स्वीकार किया है। नाम-रूपात्मक जगत की जड़ में, नाम-रूपों से भिन्न, जो कुछ अदृश्य नित्य द्रव्य है उसे कान्ट ने अपने ग्रन्थ में ‘वस्तुतत्त्व’ कहा है, और नेत्र आदि इन्द्रियों को गोचर होने वाले नाम-रूपों को ‘बाहरी दृश्य’ कहा है[1]। परन्तु वेदान्तशास्त्र में, नित्य बदलने वाले नाम-रूपात्मक दृश्य जगत को ‘मिथ्या’ या ‘नाशवान’ और मूलद्रव्य को ‘सत्य’ या ‘अमृत’ कहते हैं। सामान्य लोग सत्य की व्याख्या यों करते हैं कि ‘चक्षुवैं सत्यं’ अर्थात जो आंखों से देख पड़े वही सत्य है; और व्यवहार में भी देखते हैं कि किसी ने स्वपन्न में लाख रूपया पा लिया अथवा लाख रूपया मिलने की बात कान से सुन ली; तो इस स्वपन्न की बात में और सचमुच लाख रूपये की रकम के मिल जाने में बड़ा भारी अन्तर रहता है। इस कारण एक दूसरे से सुनी हुई और आंखों से प्रत्यक्ष देखी हुई- इन दोनों बातों में किस पर अधिक विश्वास करें, आंखों पर या कानों पर? इसी दुविधा को मेटने के लिये बृहदारणयक उपनिषद[2]में यह ‘चक्षुवैं सत्यं’ वाक्य आया है। किन्तु जिस शास्त्र में रूपये के खरे-खोटे होने का निश्चय ‘रूपये’ की गोल गोल सूरत और उसके प्रचलित नाम से करना है, वहाँ सत्य की इस सापेक्ष व्याख्या का क्यों उपयोग होगा? हम व्यवहार में देखते हैं कि यदि किसी की बात-चीत का ठिकाना नहीं है और यदि वह घण्टे-घण्टे में अपनी बात बदलने लगे, तो लोग उसे झूठा कहते हैं। फिर इसी न्याय से ‘रूपये’ के नाम-रूप को[3] खोटा अथवा झूठ कहने में क्या हानि है? क्योंकि रूपये का जो नाम-रूप आज इस घड़ी है, उसे दूसरे ही दिन दिया जा सकता है अर्थात हम अपनी आंखों से देखते हैं कि यह नाम-रूप हमेशा बदलता रहता है,- अतएव उसे भी झूठ कहना पड़ेगा; इस कारण हमें जो कुछ ज्ञान होता है, उसे भी असत्य-झूठ कहना पड़ेगा। इन पर, और ऐसी ही दूसरी कठिनाइयों पर ध्यान देकर ‘‘चक्षुवैं सत्यं’’ जैसे सत्य के लौकिक और सापेक्ष लक्षण को ठीक नहीं माना है; किन्तु सर्वोपनिषद में सत्य की यही व्याख्या की है कि सत्य वही है जिसका अन्य बातों के नाश हो जाने पर भी कभी नाश नहीं होता। और इसी प्रकार महाभारत में भी सत्य का यही लक्षण बतलाया गया है-[4] सत्यं नामाऽव्ययं नित्यमविकारि तथैव च । [5] अर्थात ‘‘सत्य वही है कि जो अव्यय है अर्थात जिसका कभी नाश नहीं होता, जो नित्य है अर्थात सदा सर्वदा बना रहता है, और अविकारि है अर्थात जिसका स्वरूप कभी बदलता नहीं ’’ -[6]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कान्ट ने अपने Critique of Pure Reason नामक ग्रन्थ में यह विचार किया है। नाम-रूपात्मक संसार की जड़ में जो द्रव्य है, उसे उसने 'डिंग आन् झिश्' (Ding an sich-Thing in itself) कहा है, और हमने उसी का भाषान्तर ‘वस्तुतत्त्व’ किया है। नाम-रूपों के बाहरी दृश्य को कान्ट ने ‘एरशायनुंग’ (Erscheinung=appearance) कहा है। कान्ट कहता है कि ‘वस्तुतत्त्व’ अज्ञेय है।
- ↑ 5.14. 4
- ↑ भीतरी द्रव्य को नहीं
- ↑ गी.र. 26
- ↑ ग्रीन ने real (सत या असत) की व्याख्या बतलाते समय “Whatever anything is really, it is unalterably”” कहा है (Prolegomena to Ethics 25). ग्रीन की यह व्याख्या और महाभारत की उक्त व्याख्या दोनों तत्त्वत: एक ही हैं।
- ↑ मभा.शां.162.10
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज