गीता रहस्य -तिलक पृ. 196

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

इस प्रकार भिन्न भिन्न समय में एक के बाद दूसरे, जो अनेक संस्कार हमारे मन पर होते हैं, उन्हें हम अपनी स्मरण-शक्ति से याद कर एकत्र रखते हैं; और जब वह पदार्थ-समूह हमारी दृष्टि के सामने आ जाता है, तब उन सब भिन्न भिन्न संस्कारों का ज्ञान एकता के रूप में हो कर हम कहने लगते हैं कि हमारे सामने से ‘फौज’ जा रही है। इस सेवा के पीछे जाने वाले पदार्थ का रूप देख कर हम निश्‍चय करते हैं कि वह ‘राजा’ है। और, ‘फौज’ संबंधी पहले संस्कार को तथा ‘राजा’ संबंधी इस नूतन संस्कार को एकत्र कर हम कहते हैं कि यह ‘राजा की सवारी जा रही है’। इसलिये कहना पड़ता है कि सृष्टि-ज्ञान केवल इन्द्रियों से प्रत्‍यक्ष दिखाई देने वाला जड़ पदार्थ नहीं है; किन्तु इन्द्रियों के द्वारा मन पर होने वाले अनेक संस्कारों या परिणामों का जो ‘एकीकरण’ ‘द्रष्टा आत्मा’ किया करता है, उसी एकीकरण का फल ज्ञान है।

इसीलिये भगवद्गीता में भी ज्ञान का लक्षण इस प्रकार कहा है-‘‘अविभक्तंं विभक्तेषु’’ अर्थात ज्ञान वही है कि जिससे विभक्त या निरालेपन में अविभक्ता या एकता का बोध हो [1][2]। परन्तु इस विषय का यदि सूक्ष्म विचार किया जाये कि इन्द्रियों के द्वारा मन पर जो संस्कार प्रथम होते हैं वे किस वस्तु के हैं; तो जान पड़ेगा कि यद्यपि आंख, कान, नाक इत्यादि इन्द्रियों से पदार्थ के रूप, शब्द, गंध आदि गुणों का ज्ञान हमें होता है तथापि जिस पदार्थ में ये बाह्य गुण हैं उसके आन्तरिक स्‍वरूप के विषय में हमारी इन्द्रियां हमें कुछ भी नहीं बतला सकती। हम यह देखते हैं कि ‘गीली मिट्टी’ का घड़ा बनता है; परन्तु यह नहीं जान सकते कि जिसे हम ‘गीली मिटृी’ कहते हैं, उस पदार्थ का यथार्थ तात्त्विक स्‍वरूप क्या है।

चिकनाई, गीलापन, मैला रंग या गोलाकार (रूप), इत्यादि गुण जब इन्द्रियों के द्वारा मन को पृथक् पृथक् मालूम हो जाते हैं तब उन सब संस्कारों का एकीकरण करके ‘द्रष्टा’ आत्मा कहता है कि ‘यह गीली मिट्टी है;’ और आगे इसी द्रव्य की [3] गोल तथा पोली आकृति या रूप, ठन ठन आवाज और सूखापन इत्यादि गुण जब इन्द्रियों के द्वारा मन को मालूम हो जाते हैं तब आत्मा उनका एकीकरण करके उसे ‘घड़ा’ कहता है। सारांश, सारा भेद ‘रूप या आकार ’ में ही होता रहता है; और जब इन्हीं गुणों के संस्कारों को, जो मन पर हुआ करते हैं, ‘द्रष्टा’ आत्मा एकत्र कर लेता है, तब एक ही तात्त्विक पदार्थ को अनेक नाम प्राप्त हो जाते हैं। इसका सब से सरल उदाहरण समुद्र और तरंग का, या सोना और अलंकार का है; क्योंकि इन दोनों उदाहरणों में रंग, गाढ़ापन-पतलापन, वजन आदि गुण एक ही से रहते हैं और केवल रूप आकार तथा नाम यही दो गुण बदलते रहते हैं। इसीलिये वेदान्त में ये सरल उदाहरण हमेशा पाये जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Of. Knowledge is first produced by the synthesis of what is manifold. Kant's Critigue of Pure Reason, p. 64. Max Muller's transiation 2nd. Ed.
  2. गी.18.20
  3. क्योंकि यह मानने के लिये कोई कारण नहीं, कि द्रव्य का तात्त्विक रूप बदल गया

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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