गीता रहस्य -तिलक पृ. 192

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
नवां प्रकरण

इस दृष्टि से, यानि उत्तरकालीन वेदान्त की दृष्टि से, देखें तो एक ही माया के स्वरूपतः इस प्रकार दो भेद करने पड़ते हैं - अर्थात् परब्रह्म से ‘व्यक्त ईश्‍वर’ के निर्माण होने का कारण माया है और ‘जीव’ के निर्माण होने का कारण अविद्या है। परन्तु गीता में इस प्रकार का भेद नहीं किया गया है। गीता कहती है, कि जिस माया से स्वयं भगवान् व्यक्त रूप यानि सगुण रूप धारण करते हैं [1], अथवा जिस माया के द्वारा अष्टधा प्रकृति अर्थात् सृष्टि की सारी विभूतियाँ उनसे उत्पन्न होती हैं[2], उसी माया के अज्ञान से जीव मोहित होता है [3]। ‘अविद्या’ शब्द गीता में कहीं भी नहीं आया है; और श्वेताश्वतरोपनिषद में जहाँ वह शब्द आया है वहाँ उसका स्पष्टीकरण भी इस प्रकार किया है, कि माया के प्रपञ्च को ही ‘अविद्या‘ कहते हैं[4]। अतएव उत्तरकालीन वेदान्त-ग्रन्थों में केवल निरूपण की सरलता के लिये, जीव और ईश्वर की दृष्टि से, किये गये सूक्ष्म भेद- अर्थात् माया और अविद्या- को स्वीकार न कर हम ‘माया’, ‘अविद्या’ और ‘अज्ञान’ शब्दों को समानार्थक ही मानते हैं; और अब शास्त्रीय रीति से संक्षेप में इस विषय का विवेचन करते हैं, कि त्रिगुणात्मक माया, अविद्या या अज्ञान और मोह का सामान्यतः तात्विक स्वरूप क्या है, और उसकी सहायता से गीता तथा उपनिषदों के सिद्धान्तों की उपपत्ति कैसे जानी जा सकती है।

निर्गुण और सगुण शब्द देखनें में छोटे हैं; परन्तु जब इसका विचार करने में लगें कि इन शब्दों में किन-किन बातों का समावेश होता है तब सारा ब्रह्माण्ड दृष्टि के सामने खड़ा हो जाता है। जैसे, इस संसार का मूल जब वही अनादि परब्रह्म है जो एक, निष्क्रिय और उदासीन है तब उसी में मनुष्य की इन्द्रियों को गोचर होने वाले अनेक प्रकार के व्यापार और गुण कैसे उत्पन्न हुए तथा उस अखंड परब्रह्म के खंड कैसे हो गये; अथवा शीत, उष्ण आदि भेद नहीं हैं, उसी में नाना प्रकार की रुचि, न्यूनाधिक गाढ़ा-पतला-पन, या शीत और उष्ण, सुख और दुःख, प्रकाश और अँधेरा, मृत्यु और अमरता इत्यादि अनेक प्रकार के द्वन्द्व कैसे उत्पन्न हुए; जो परब्रह्म शान्त और निर्वात है उसी में नाना प्रकार के शब्द कैसे निर्माण होते हैं; जिस परब्रह्म में भीतर-बाहर या दूर और समीप का कोई भेद नहीं है उसी में आगे या पीछे, दूर या समीप, अथवा पूर्व-पश्चिम इत्यादि दिक्कृत या स्थलकृत भेद कैसे हो गये; जो परब्रह्म अविकारी, त्रिकालाबाधित, नित्य और अमृत है उसी के न्यूनाधिक काल-मान से नाशवान् पदार्थ कैसे बने; अथवा जिसे कार्य-कारण-भाव का स्पर्श भी नहीं होता उसी परब्रह्म के कार्य-कारण-रूप-जैसे मिट्टी और घड़ा-क्यों दिखाई देते हैं; ऐसे ही और भी अनेक विषयों का उक्त छोटे से दो शब्दों में समावेश हुआ है। अथवा संक्षेप में कहा जाय तो, अब इस बात का विचार करना है कि एक ही में अनेकता, निर्द्वन्द्व में नाना प्रकार की द्वन्द्वता, अद्वैत में द्वैत और निःसंग में संग कैसे हो गया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7. 25
  2. 4. 6
  3. 7.4-15
  4. श्वेता. 5.1

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः