गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
जिन बड़े बड़े महात्माओं और ऋषियों ने एकाग्र मन करके सूक्ष्म तथा शान्त विचारों से यह सिद्धान्त ढूंढ़ निकाला, कि ‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’’ [1]- मन को भी जो दुर्गम है और वाणी भी जिसका वर्णन नहीं कर सकती, वही अन्तिम ब्रह्मस्वरूप है, उनके आत्मानुभव को अतिशयोक्ति कैसे कहैं! केवल एक साधारण मनुष्य अपने क्षुद्र मन में यदि अनन्त निर्गुण ब्रह्म को ग्रहण नहीं कर सकता इसलिये उसका यह कहना, कि सच्चा ब्रह्म सगुण ही है, मानों सूर्य की अपेक्षा अपने छोटे से दीपक को श्रेष्ठ बतलाना है! हाँ; यदि निर्गुण रूप की उपपत्ति उपनिषदों में और गीता में न दी गई होती, तो बात ही दूसरी थी; परन्तु यथार्थ में वैसा है नहीं। देखिये न, भगवद्गीता में तो स्पष्ट ही कहा है कि परमेश्वर का सच्चा श्रेष्ठ स्वरूप अव्यक्त है, और व्यक्त सृष्टि का रूप धारण करना तो उसकी माया है [2]; परन्तु भगवान् ने यह भी कहा है, कि प्रकृति के गुणों से ‘मोह में फँस कर मूर्ख लोग ( अव्यक्त और निर्गुण ) आत्मा को ही कर्ता मानते हैं ‘[3], किन्तु ईश्वर तो कुछ नहीं करता, लोग केवल अज्ञान से फँस जाते हैं[4]; अर्थात् भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में यह उपदेश किया है, कि यद्यपि अव्यक्त आत्मा या परमेश्वर वस्तुतः निर्गुण है[5]तो भी लोग उस पर ‘मोह’ या ‘अज्ञान’ से कर्तृत्व आदि गुणों का अध्यारोप करते हैं और उसे अव्यक्त सगुण बना देते हैं [6]। उक्त विवेचन से परमेश्वर के स्वरूप के ‘विषय’ में गीता के यही सिद्धान्त मालूम होते हैं :- 1.गीता में परमेश्वर के व्यक्त स्वरूप का यद्यपि बहुत सा वर्णन है तथापि परमेश्वर का मूल और श्रेष्ठ स्वरूप निर्गुण तथा अव्यक्त ही है और मनुष्य मोह या अज्ञान से उसे सगुण मानते हैं; 2.सांख्यों की प्रकृति या उसका व्यक्त फैलाव-यानी अखिल संसार-उस परमेश्वर की माया है; और 3.सांख्यों का पुरुष यानि जीवात्मा यथार्थ में परमेश्वर-रूपी, परमेश्वर के समान ही निर्गुण और अकर्ता है, परन्तु अज्ञान के कारण लोग उसे कर्ता मानते हैं। वेदान्तशास्त्र के सिद्धान्त भी ऐसे ही है; परन्तु उत्तर-वेदान्त-ग्रन्थों में इन सिद्धान्तों को बतलाते समय माया और अविद्या में कुछ भेद किया जाता है। उदाहरणार्थ, पञ्चदशी में पहले यह बतलाया गया है, कि आत्मा और परब्रह्म दोनों मूल में एक ही यानि ब्रह्मस्वरूप हैं, और यह चित्स्वरूपी ब्रह्म जब माया में प्रतिबिम्बित होता है तब सत्त्व-रज-तम गुणामयी (सांख्यों की मूल) प्रकृति का निर्माण होता है। परन्तु आगे चल कर इस माया के ही दो भेद - ‘माया’ और ‘अविद्या’- किये गये हैं और यह बतलाया गया है, कि जब माया के तीन गुणों में से ‘शुद्ध’ सत्त्वगुण का उत्कर्ष होता है तब उसे केवल माया कहते हैं, और इस माया में प्रतिबिम्बित होने वाले ब्रह्म को सगुण यानि व्यक्त ईश्वर ( हिरण्यगर्भ ) कहते हैं; और यदि सत्त्व गुण ‘अशुद्ध’ हो तो उसे ‘अविद्या’ कहतें हैं, तथा उस अविद्या में प्रतिबिम्बित ब्रह्म को ‘जीव’ कहते हैं [7]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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