गीता रहस्य -तिलक पृ. 189

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

‘तदेजति तन्नैजति तत दूरे तद्वंतिके’ अर्थात वह हिलता है और हिलता भी नही; वह दूर है और समीप भी है [1] या ‘सर्वेन्द्रियगुणाभास’ हो कर भी ‘सर्वेन्द्रियविवर्जित’ है [2],। मृत्यु ने ‘नचिकेता को यह उपदेश किया है, कि अन्त में उपर्युक्त सब लक्षणों को छोड़ दो और जो धर्म और अधर्म के, कृत और अकृत के, अथवा भूत और भव्य के भी परे है उसे ही ब्रह्म जानो [3]। इसी प्रकार महाभारत के नारायणीय धर्म में ब्रह्मा रुद्र से [4], और मोक्षधर्म में नारद शुक से कहते हैं [5]। बृहदारणयकोपनिषद [6] में भी पृथ्वी, जल और अग्नि-इन तीनों को ब्रह्म का मूर्तरूप कहा है; फिर वायु तथा आकाश को अमूर्तरूप कह कर दिखाया है, कि इन अमूर्तों के सारभूत पुरुषों के रूप या रंग बदल जाते हैं; और अन्त में यह उपदेश किया है कि ‘नेति’ ‘नेति’ अर्थात अब तक जो कहा गया है, वह नहीं है, वह ब्रह्म नहीं है-इन सब नाम-रूपात्‍मक मूर्त या अमूर्त पदार्थों के परे जो ‘अगृह्य’ या ‘अवर्णनीय’ है उसे ही परब्रह्म समझो[7]

अधिक क्या कहैं; जिन जिन पदार्थों को कुछ नाम दिया जा सकता है उन सब से भी परे जो है वही ब्रह्म है और उस ब्रह्म का अव्यक्त तथा निर्गुण स्‍वरूप दिखलाने के लिये ‘नेति’ ‘नेति’ एक छोटा सा निर्देश, आदेश या सूत्र ही हो गया है। बृहदारणयक उपनिषद में ही उसका प्रयोग चार बार हुआ है [8]। इसी प्रकार दूसरे उपनिषदों में भी परब्रह्म के निर्गुण और अचिन्त्य रूप का वर्णन पाया जाता है; जैसे-‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’’ [9]; ‘‘अद्रेश्यं (अदृश्य ), अग्राह्मि’’ [10]‘‘न चक्षुषा गृह्यते नाऽपि वाचा [11];

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत। अनाद्यनन्तं महतःपरं ध्रुवं निचाय्‍य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते।।

अर्थात वह परब्रह्म, पंचमहाभूतों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-इन पांच गुणों से रहित, अनादि-अनन्त और अव्यय है [12]। महाभारतान्तर्गत शान्तिपर्व में नारायणीय या भगवतधर्म के वर्णन में भी भगवान ने नारद को अपना सच्चा स्वरूप ‘अद्श्य, अघ्रेय, अस्पृश्य, निर्गुण, निष्कल (निरवयव), अज, नित्य, शाश्वत और निष्क्रिय’ बतला कर कहा है कि वही सृष्टि की उत्‍पत्ति तथा प्रलय करने वाला त्रिगुणातीत परमेश्वर है, और उसी को ‘वासुदेव परमात्मा’ कहते हैं [13]

उपर्युक्त वचनों से यह प्रगट होगा, कि न केवल भगवद्गीता में ही वरन् महाभारतान्तर्गत नारायणीय या भागवतधर्म में और उपनिषदों में भी परमात्मा का अव्यक्त स्‍वरूप ही व्यक्त स्‍वरूप से श्रेष्ठ माना गया है, और यही अव्यक्त श्रेष्ठ स्‍वरूप वहाँ तीन प्रकार से वर्णित है अर्थात सगुण, सगुण-निर्गुण और अन्त में केवल निर्गुण। अब प्रश्न यह है, कि अव्यक्त और श्रेष्ठ स्‍वरूप के उक्त तीन परस्पर-विरोधी रूपों का मेल किस तरह मिलाया जावे? यह कहा जा सकता है, कि इन तीनों में से जो सगुण-निर्गुण अर्थात उभयात्मक रूप है, वह सगुण से निर्गुण में ( अथवा अज्ञेय में) जाने की सीढ़ी या साधन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ईश.5; मुं3.1.7.
  2. श्वेता. 3.17
  3. कठ.2.14
  4. मभा. शां. 351.11
  5. 331.44
  6. 2.3.2
  7. बृह.2.3.6और वेसू.3.2.22
  8. बृह. 3. 9. 26; 4. 2. 4; 4. 22; 4. 4. 5.15
  9. तैत्ति.2.9
  10. मुं.1.1.6
  11. मु.3.1.8
  12. कठ.3.15;वेसू.3.2.22-30 देखो
  13. मभा.शां.339.21-28

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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