गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
अन्त में अठारहवे [1] अध्याय में भगवान ने उपदेश किया है -‘‘है अर्जुन! सब प्राणियों के हृदय में जीव रूप में परमात्मा का ही निवास है, और वह अपनी माया से यंत्र के समान प्राणियों को घुमाता है। ’’ भगवान ने अर्जुन को विश्वरूप दिखाया है, वहीं नारद को भी दिखलाया था। इसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत नारायणीय प्रकरण[2] में है; पहले प्रकरण में हम बतला चुके हैं, कि नारायणीय यानि भागवतधर्म ही गीता में प्रतिपादित किया गया है। नारद को हजारों नेत्रों, रंगो तथा अन्य दृश्य गुणों का विश्वरूप दिखला कर भगवान ने कहाः- माया ह्येषा मया स्रष्टा यन्मां पश्यसि नारद। सर्व भूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि।। ‘‘तुम मेरा जो रूप देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है; इससे तुम यह न समझो कि मैं सर्वभूतों के गुणों से युक्त हूँ।’’ और फिर यह भी कहा है कि, ‘‘मेरा सच्चा स्वरूप सर्वव्यापी, अव्यक्त और नित्य है; उसे सिद्ध पुरुष पहचानते हैं’’[3]। इससे कहना पड़ता है, कि गीता में वर्णित, भगवान का अर्जुन को दिखलाया हुआ, विश्वरूप भी मायिक ही था। सारांश, उपर्युक्त विवेचन से इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता कि गीता का यही सिद्धान्त होना चाहिये- कि यद्यपि केवल उपासना के लिये व्यक्त स्वरूप की प्रशंसा गीता में भगवान ने की है, तथापि परमेश्वर का श्रेष्ठ स्वरूप अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों को अगोचर ही है; अव्यक्त से व्यक्त होना उसकी माया है; और इस माया के पास होकर जब तक मनुष्य को परमात्मा के शुद्ध तथा अव्यक्त रूप का ज्ञान न हो, तब तक उसे मोक्ष नहीं मिल सकता। अब, इसका अधिक विचार आगे करेंगे कि माया क्या वस्तु है। उपर दिये गये वचनों से इतनी बात स्पष्ट है कि यह मायावाद श्रीशंकराचार्य ने नये सिरे से नहीं उपस्थित किया है, किन्तु उनके पहले ही भगवद्गीता, महाभारत और भागवत धर्म में भी वह ग्राह्य माना गया था। श्वेताश्वतरोपनिषद में भी सृष्टि की उत्पत्ति इस प्रकार कही गई है-‘‘मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महैश्वरम्’’ [4] अर्थात माया को (सांख्यों की) प्रकृति जानो और परमेश्वर को उस माया का अधिपति, कि जिसने अपनी माया से विश्व निर्माण किया है।इतनी बात यद्यपि स्पष्ट हो चुकी कि परमेश्वर का श्रेष्ठ स्वरूप व्यक्त नहीं अव्यक्त है, तथापि थोड़ा सा यह विचार होना भी आवश्यक है कि परमात्मा का यह श्रेष्ठ अव्यक्त स्वरूप सगुण है या निर्गुण। जबकि सगुण अव्यक्त का हमारे सामने यह एक उदाहरण है, कि सांख्यशास्त्र की प्रकृति अव्यक्त (अर्थात इन्द्रियों के अगोचर) होने पर भी सगुण अर्थात सत्त्व-रज-तम-गुणमय है; तब कुछ लोग यह कहते हैं कि परमेश्वर का अव्यक्त और श्रेष्ठ रूप भी उसी प्रकार सगुण माना जावे। अपनी माया से क्यों न हो; परन्तु जब वही अव्यक्त परमेश्वर व्यक्त सृष्टि निर्माण करता है[5] और सब लोगों के हृदय में रह कर उनसे सारे व्यापार कराता है[6], जब वही सब यशों का भोक्ता और प्रभु है।[7] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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