गीता रहस्य -तिलक पृ. 180

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

यदि केवल आधिभौतिक शास्त्रों की प्रणाली से विचार कर देखें तो सांख्य-वादियों का उक्त मत अनुचित नहीं कहा जा सकता। कारण यह है, कि सृष्टि के अन्य पदार्थों को जैसे हम अपनी इन्द्रियों से देख-भाल कर उनके गुण-धर्मों का विचार करते हैं, वैसे यह ‘द्रष्टा पुरुष’ या देखने वाला-अर्थात् जिसे वेदान्त में ‘आत्मा’ कहा है वह-द्रष्टा की, अर्थात अपनी ही, इन्द्रियों को भिन्न रूप में कभी गोचर नहीं हो सकता। और जिस पदार्थ का इस प्रकार इन्द्रिय-गोचर होना असम्भव है यानि जो वस्तु इन्द्रियातीत है उसकी परीक्षा मानवी इन्द्रियों से कैसे हो सकती है? उस आत्मा का वर्णन भगवान् ने गीता[1] में इस प्रकार किया हैः-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं केल्दयन्त्यापों न शोषयति मारूतः ।।

अर्थात, आत्मा कोई ऐसा पदार्थ नहीं, कि यदि हम सृष्टि के अन्यान्य पदार्थों के समान उस पर तेजाब आदि द्रव पदार्थ डालें तो उसका द्रव रूप हो जाय, अथवा प्रयोगशाला के पैने शस्त्रों से काट-छाँट कर उसका आन्तरिक स्‍वरूप देख लें, या आग पर धर देने से उसका धुआँ हो जाय, अथवा हवा में रखने से वह सूख जाय! सारांश, सृष्टि के पद्रार्थों की परीक्षा करने के, आधिभौतिक शास्त्रवेत्ताओं ने जितने कुछ उपाय ढूँढे़ हैं, वे सब यहाँ निष्फल हो जाते हैं। सहज ही प्रश्न उठता है, कि फिर ‘आत्‍मा’ की परीक्षा कैसे हो? प्रश्‍न है तो विकट; पर विचार करने से कुछ कठिनाई देख नहीं पड़ती। भला, सांख्य-वादियों ने भी ‘पुरुष’ को निर्गुण और स्वतंत्र कैसे जाना? केवल अपने अन्तःकरण के अनुभव से ही तो जाना है न? फिर उसी रीति का उपयोग प्रकृति और पुरुष के सच्चे स्वरूप का निर्णय करने के लिये क्यों न किया जावे?

आधिभौतिकशास्त्र और आध्‍यात्‍म-शास्‍त्र में जो बड़ा भारी भेद है, वह यही है। आधिभौतिकशास्त्रों के विषय इन्द्रिय-गोचर होते हैं; और अध्यात्मशास्त्र का विषय इन्द्रियातीत अर्थात केवल स्वसंवेद्य है, यानि अपने आप ही जानने योग्य है। कोई यह कहे कि यदि ‘आत्मा' स्वयंवेद्य है तो प्रत्येक मनुष्य को उसके विषय में जैसा ज्ञान होवे वैसा होने दो; फिर अध्यात्मशास्त्र की आवश्यकता ही क्या है? हाँ; यदि प्रत्येक मनुष्य का मन या अन्तःकरण समान रूप से शुद्ध हो, तो फिर यह प्रश्न ठीक होगा। परन्तु जबकि अपना यह प्रत्यक्ष अनुभव है, कि सब लोगों के मन या अन्तःकरण की शुद्धि और शक्ति एक सी नहीं होती; तब जिन लोगों के मन अत्यंत शुद्ध, पवित्र और विशाल हो गये हैं, उन्हीं की प्रतीति इस विषय में हमारे लिये प्रमाणभूत होनी चाहिये। यों ही ‘मुझे ऐसा मालूम होता है’ और ‘तुझे ऐसा मालूम होता है’ कह कर निरर्थक वाद करने से ऐसा कोई लाभ न होगा। वेदान्तशास्त्र तुमको युक्तियों का उपयोग करने से बिल्‍कुल नहीं रोकता। वह सिर्फ यही कहता है कि इस विषय में निरीयुक्तियाँ वहीं तक मानी जावेंगी; जहाँ तक कि इन युक्तियों से अत्यंत विशाल, पवित्र और निर्मल अन्तःकरण वाले महात्माओं के इस विषय-सम्बन्धी साक्षात् अनुभव का विरोध न होता हो; क्योंकि अध्यात्मशास़्त्र का विषय स्वसंवेद्य है- अर्थात् केवल आधिभौतिक युक्तियों से उसका निर्णय नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.23

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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