गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
जो कुछ भेद है, वह शेष वचनों या श्लोकों के विषय ही में है। यदि इन वचनों का सरल अर्थ लिया जाय तो वह सभी सम्प्रदायों के लिये समान अनुकूल नहीं हो सकता। इसलिये भिन्न-भिन्न सांप्रदायिक टीका कर इन वचनों में से जो अपने संप्रदाय के लिये अनुकूल हो उन्हीं को प्रधान मानकर और अन्य सब वचनों को गौण समझकर, अथवा प्रतिकूल वचनों के अर्थ को किसी युक्ति से बदलकर या सुबोध तथा सरल वचनों में से कुछ शेषार्थ या अनुमान निकालकर, यह प्रतिपादन किया करते है कि हमारा ही संप्रदाय उक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ,[1] श्लोकों पर हमारी टीका देखो। परन्तु यह बात सहज ही किसी की समझ में आ सकती है कि उक्त सांप्रदायिक रीति से किसी ग्रंथ का तात्पर्य निश्चित करना; और इस बात का अभिमान न करके कि गीता में अपना ही संप्रदाय प्रतिपादित हुआ है अथवा अन्य किसी भी प्रकार का अभिमान करके समग्र ग्रंथ की स्वतंत्र रीति से परीक्षा करना और उस परीक्षा ही के आधार पर ग्रंथ का मथितार्थ निश्चित करना, ये दोनों बातें स्वभावतः अत्यंत भिन्न है। ग्रंथ के तात्पर्य-निर्णय की सांप्रदायिक दृष्टि सदोष है इसलिये इसे यदि छोड़ दे तो अब यह बतलाना चाहिये कि गीता का तात्पर्य अर्थ जानने के लिये दूसरा साधन है क्या? ग्रंथ, प्रकरण और वाक्यों के अर्थ का निर्णय करने में मीमांसक लोग अत्यंत कुशल होते हैं। इस विषय में उन लोगों का एक प्राचीन और सर्वमान्य श्लोक हैः- उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोअपूर्वता फलम्। जिनमें वे कहते हैं कि किसी भी लेख, प्रकरण अथवा ग्रंथ के तात्पर्य का निर्णय करने में, उक्त श्लोक में कही हुई, सात बातें, साधन-लिंग स्वरूप हैं, इसलिये इन सब बातों पर अवश्य विचार करना चाहिये। इनमें सबसे पहली बात 'उपक्रमोपसंहारौ' अर्थात ग्रंथ का आरम्भ और अंत है। कोई भी मनुष्य अपने मन में कुछ विशेष हेतु रखकर ही ग्रंथ लिखना आरम्भ करता है और उस हेतु के सिद्ध होने पर ग्रंथ को समाप्त करता है। अतएव ग्रंथ के तात्पर्य-निर्णय के लिये, उपक्रम और उपसंहार ही का, सबसे पहले विचार किया जाना चाहिये। सीधी रेखा की व्याख्या करते समय भूमितिशास्त्र में ऐसा कहा गया है कि आरंभ के बिन्दु से जो रेखा दाहिने-बाएं या ऊपर-नीचे किसी तरफ नहीं झुकती और अंतिम बिंदु तक सीधी चली जाती है। उसे सरल रेखा कहते है। ग्रंथ के तात्पर्य-निर्णय में भी यही सिद्धांत उपर्युक्त है। जो तात्पर्य ग्रंथ के आरम्भ और अंत में साफ साफ झलकता है वही ग्रंथ का सरल तात्पर्य है। आरंभ से अंत तक जाने के लिये यदि अन्य मार्ग हों भी तो उन्हें टेढ़े समझना चाहिये; आद्यन्त देख कर ग्रंथ का तात्पर्य पहले निश्चित कर लेना चाहिये और तब यह देखना चाहिये कि उस ग्रंथ में 'अभ्यास' अर्थात पुनरूक्ति-स्वरूप में बार बार क्या कहा गया है? क्योंकि ग्रंथकार के मन में जिस बात को सिद्ध करने की इच्छा होती है उसके समर्थन के लिये वह अनेक बार कई कारणों का उल्लेख करके बार बार ही निश्चित सिद्धांत को प्रगट किया करता है और हर बार कहा करता है कि "इसीलिये यह बात सिद्ध हो गई," "अतएव ऐसा करना चाहिये" इत्यादि। ग्रंथ के तात्पर्य का निर्णय करने के लिये जो चौथा साधन है उसको 'अपूर्वता' और पांचवें साधन को 'फल' कहते है। अपूर्वता कहते हैं नवीनता को। कोई भी ग्रंथकार जब ग्रंथ लिखना शुरू करता है तब वह कुछ नई बात बतलाना चाहता है; बिना कुछ नवीनता या विशेष वक्तव्य के वह ग्रंथ लिखने में प्रवृत नहीं होता; विशेष करके यह बात उस जमाने में पाई जाती थी जबकि छापे खाने नहीं थे। इसलिये; किसी ग्रंथ के तात्पर्य का निर्णय करने के पहले यह भी देखना चाहिये कि उसमें अपूर्वता, विशेषता या नवीनता क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2.12 और 16;3.16;6.3; और 18.2
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