गीता रहस्य -तिलक पृ. 175

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

इन सब भावों में सात्त्विक गुण का उत्कर्ष होने से जब मनुष्य को ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है और उसके कारण प्रकृति और पुरुष की भिन्‍नता समझ में आने लगती है, तब मनुष्य अपने मूलस्वरूप अर्थात् कैवल्य पद को पहुँच जाता है; और तब लिंग-शरीर छूट जाता है एवं मनुष्य के दुःखों का पूर्णतया निवारण हो जाता है। परंतु, प्रकृति और पुरुष की भिन्नता का ज्ञान न होते हुए, यदि केवल सात्त्विक गुण ही का उत्कर्ष हो, तो लिंग-शरीर देवयोनि में अर्थात् स्वर्ग में जन्म लेता है; और, तमोगुण की अधिकता हो जाने से उसे तिर्यक्योनि में प्रवेश करना पड़ता है [1]। ‘‘गुणा गुणेषु जायन्ते” इस तत्त्व के ही आधार पर सांख्यशास्त्र में वर्णन किया गया है कि, मानवयोनि में जन्म होने के बाद रेत-बिन्दु से क्रमानुसार कलल, बुदबुद, मांस, पेशी और भिन्न-भिन्न स्थूल इंन्द्रियाँ कैसे बनती जाती हैं [2]। गर्भोपनिषद का वर्णन प्रायः सांख्यशास्त्र के उक्त वर्णन के समान ही है। उपर्युक्त विवेचन से यह बात मालूम हो जायेगी कि, सांख्यशास्त्र में ‘भाव’ शब्द का जो पारिभाषिक अर्थ बतलाया गया है वह यद्यपि वेदान्तग्रंथों मे विवक्षित नहीं है, तथापि भगवद्गीता में [3]‘‘बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः” इत्यादि गुणों को ( इसके आगे के श्लोक में ) जो ‘भाव‘ नाम दिया गया है वह प्रायः सांख्यशास्त्र की परिभाषा को सोच कर ही दिया गया होगा।

इस प्रकार, सांख्यशास्त्र के अनुसार मूल अव्यक्त प्रकृति से, अथवा वेदान्त के अनुसार मूल सद्रुपी परब्रह्म से, सृष्टि के संहार का समय आ पहुँचता है तब, सृष्टि-रचना का जो गुण परिणाम-क्रम ऊपर बतलाया गया है ठीक उसके विरुद्ध क्रम से, सब व्यक्त पदार्थ अव्यक्त प्रकृति में अथवा मूल ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। यह सिद्धान्त सांख्य और वेदान्त दोनों शास्त्रों को मान्य है [4]। उदाहरणार्थ, पञ्चमहाभूतों में से पृथ्वी का लय पानी में, पानी का अग्नि में, अग्नि का वायु, वायु में आकाश का, आकाश का तन्मात्राओं में, तन्मात्राओं का अहंकार में, अहंकार का बुद्धि में, और बुद्धि या महान् का लय प्रकृति में हो जाता है, तथा वेदान्त के अनुसार प्रकृति का लय मूल ब्रह्म में हो जाता है। सांख्य-कारिका में किसी स्थान पर यह नहीं बतलाया गया है कि, सृष्टि की उत्पत्ति या रचना हो जाने पर उसका लय तथा संहार होने तक बीच में कितना समय लग जाता है। तथापि, ऐसा प्रतीत होता है कि, मनुसंहिता[5], भगवद्गीता[6], तथा महाभारत[7] में वर्णित काल-गणना सांख्यों को भी मान्य है।

हमारा उत्तरायण देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात है। क्योंकि, स्मृतिग्रन्थों में और ज्योतिषशास्त्र की संहिता[8] में भी यही वर्णन है, कि देवता मेरूपर्वत पर अर्थात् उत्तर ध्रुव में रहते हैं। अर्थात्, दो आयनों का हमारा एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के बराबर और हमारे 360 वर्ष देवताओं के 360 दिन-रात अथवा एक वर्ष के बराबर हैं। कृत, त्रेता, द्वापर और कलि हमारे चार युग हैं। इन युगों की काल-गणना इस प्रकार है; कृत-युग में चार हजार वर्ष, त्रेतायुग में तीन हजार, द्वापर में दो हजार और कलि में एक हजार वर्ष। परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम आरंभ नहीं हो जाता, बीच में दो युगों के संधि-काल में कुछ वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार कृत-युग के आदि और अन्त में से प्रत्येक ओर चार सौ वर्ष का, त्रेतायुग के आगे और पीछे प्रत्येक ओर तीन सौ वर्ष का, द्वापर के पहले और बाद ओर दो सौ वर्ष का, और कलियुग के पूर्व तथा अनंतर प्रत्येक ओर सौ वर्ष का संधि-काल होता है। सब मिला कर चारों युगों का आदि-अंत सहित संधि-काल दो हजार वर्ष का होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.14. 18
  2. सां. का. 43; मभा. शां. 320
  3. 10. 4, 5; 7. 12
  4. वे.सू. 2.3.14; मभा. शां. 232
  5. 1.66-73
  6. 8.17
  7. शां. 231
  8. सूर्यसिद्धान्त 1. 13; 12. 35, 67

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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