गीता रहस्य -तिलक पृ. 169

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

अण्‍डज, जरायुज, स्वेदज, उद्भिज सब का बीज पृथ्वी और पानी है; यही सृष्टि-रचना का अद्भुत चमत्कार है। इस प्रकार चार खानि, चार वाणी, चौरासी लाख [1] [2]जीवयोनि, तीन लोक, पिंड, ब्रह्मांड सब निर्मित होते हैं’’ [3]। परन्तु पंजीकरण से केवल जड़ पदार्थ अथवा जड़ शरीर ही उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे कि, जब इस जड़ देह का संयोग प्रथम सूक्ष्म इंन्द्रियों से और फिर आत्मा से अर्थात पुरुष से होता है, तभी इस जड़ देह से सचेतन प्राणी हो सकता है। यहाँ यह भी बतला देना चाहिये कि, उत्तर-वेदान्तग्रन्थों में वर्णित यह पंजीकरण प्राचीन उपनिषदों में नहीं है। छांदोग्योपनिषद में पांच तन्‍मात्राएं या पांच महाभूत नहीं माने गये हैं किन्तु कहा है कि, ‘तेज, आप (पानी) और अन्न (पृथ्वी)’ इन्हीं तीन सूक्ष्म मूलतत्त्वों के मिश्रण से अर्थात ‘त्रिवृत्करण’ से सब विविध सृष्टि बनी है। और, श्वेताश्वतरोपनिषद में कहा है कि ‘‘अजामेंकां लोहितशुक्लकृष्णां ब्रह्मी: प्रजाःसृजमानां सरूपाः’’ [4]अर्थात लाल (तेजोरूप), सफेद (जलरूप्) और काले (पृथ्वी रूप) रंगों की अर्थात (तीन तत्त्वों की) एक अजा बकरी से नाम रूपात्‍मक प्रजा सृष्टि उत्पन्न हुई।

छांदोग्‍योपनिषद् के छठवें अध्याय में श्वेतकेतु और उसके पिता का संवाद है। संवाद के आरम्भ ही में श्वेतकेतु के पिता ने स्पष्ट कह दिया है कि, ‘‘अरे! इस जगत के आरंभ में ‘एकमेवाद्वितीयं सत्’ के अतिरिक्त, अर्थात जहाँ तहां सब एक ही और नित्य परब्रह्म के अतिरिक्त, और कुछ भी नहीं था। जो असत अर्थात नहीं है, है उससे सत् कैसे उत्पन्न हो सकता है? अतएव, आदि में सर्वत्र सत ही व्याप्त था। इसके बाद उसे अनेक अर्थात विविध होने की इच्छा हुई और उससे क्रमशःसूक्ष्म तेज (अग्नि) आप (पानी) और अन्न (पथ्वी) की उत्पत्ति हुई। पश्‍चात इन तीन तत्त्वों में ही जीवरूप से परब्रह्म का प्रवेश होने पर उनके त्रिवृत्करण से जगत की अनेक नाम-रूपात्‍मक वस्‍तुएं निर्मित हुई। स्थूल अग्नि, सूर्य या विद्युल्लता की ज्योति में जो लाल लोहित रंग है वह सूक्ष्म तेजो रूपी मूलतत्त्व का परिणाम है, जो सफेद, शुक्र रंग है वह सूक्ष्म आप तत्त्व का परिणाम है, और कृष्ण काला रंग है वह सूक्ष्म पृथ्वी-तत्त्व का परिणाम है। इसी प्रकार, मनुष्य जिस अन्न का सेवन करता है उसमें भी सूक्ष्म तेज, सूक्ष्म आप और सूक्ष्म अन्न पृथ्वी - यही तीन तत्त्व होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह बात स्पष्ट है कि चौरासी लाख योनियों की कल्पना पौराणिक है और वह अंदाज से की गई है। तथापि, वह निरी निराधार भी नहीं है। उत्‍क्रांति तत्त्व के अनुसार पश्चिमी आधिभौतिक-शास्त्री यह मानते हैं कि, सृष्टि के आरंभ में उपस्थित एक छोटे से गोल सजीव सूक्ष्म जन्तु से, मनुष्य प्राणी उत्पन्न हुआ। इस कल्पना से यह बात स्पष्ट है कि, सूक्ष्म गोल जन्तु का स्थूल गोल जन्तु बनने में, इस स्थूल जन्तु का पुनश्च छोटा कीड़ा होने में, छोटे कीड़े के बाद उसका अन्य प्राणी होने में, प्रत्येक योनि अर्थात जाति की अनेक पीढियां बीत गई होंगी। इससे एक आंग्ल जीवशास्त्रज्ञ ने गणित के द्वारा सिद्ध किया है कि, पानी में रहने वाली छोटी छोटी मछलियों के गुण-धर्मों का विकास होते होते उन्हीं को मनुष्य स्‍वरूप प्राप्त होने में, भिन्न भिन्न जातियों की लगभग 53 लाख 75 हजार पीढियां बीत चुकी हैं; और, संभव है कि, इन पीढियों की संख्या कदाचित इससे दस गुनी भी हो। ये हुई पानी में रहने वाले जलचरों से ले कर मनुष्य तक की योनियां। अब यदि इनमें ही छोटे जलचरों से पहले के सूक्ष्म जन्तुओं का समावेश कर दिया जाय, तो न मालूम कितने लाख पीढियों की कल्पना करनी होगी! इससे मालूम हो जायेगा कि, हमारे पुराणों में वर्णित चौरासी लाख योनियों की कल्पना की अपेक्षा, आधिभौतिक शास्त्रज्ञों के पुराणों में वर्णित पीढ़ियों की कल्पना कहीं अधिक बढ़ी चढ़ी है। कल्पना संबंधी यह न्याय काल (समय) को भी उपयुक्त हो सकता है। भूगर्भगत-जीव-शास्त्रज्ञों का कथन है कि, इस बात का स्थूल दृष्टि से निश्चय नहीं किया जा सकता कि सजीव सृष्टि के सूक्ष्म जंतु इस पृथ्वी पर कब उत्‍पन्‍न हुए; और, सूक्ष्म जलचरों की उत्पत्ति तो कई करोड़ वर्षों के पहले हुई है। इस विषय का विवेचन The Last Link by Ernst Haeckel, with notes etc. By Dr. H. Gadow(1988) नामक पुस्तक में किया गया है। डाक्टर गेडो ने इस पुस्तक में जो दो तीन उपयोगी परिशिष्ट जोड़े हैं उनसे ही उपर्युक्त बातें ली गई हैं। हमारे पुराणों में चौरासी लाख योनियों की गिनती इस प्रकार की गई है:9 लाख जलचर, 10 लाख पक्षी, 11 लाख कृमि, 20 लाख पशु, 30 लाख स्थावर और 4 लाख मनुष्य (दासबोध 20.6 देखो)।
  2. गी. र. 24
  3. दा. 13.3.10-15
  4. श्वेता.4.5

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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