गीता रहस्य -तिलक पृ. 161

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

इस जगत् में सेन्द्रिय और निरिन्द्रिय पद्रार्थों के अतिरिक्त किसी तीसरे पदार्थ का होना संभव नहीं, इसलिये कहने की आवश्यकता नहीं कि, अहंकार से दो से अधिक शाखाएँ निकल ही नहीं सकती। इनमें निरिन्द्रिय पद्रार्थों की अपेक्षा इन्द्रिय-शक्ति श्रेष्ठ है, इसलिये इन्द्रिय सृष्टि को सात्त्विक ( अर्थात् सत्त्वगुण के उत्कर्ष से होने वाली कहते हैं ) और निरिन्द्रिय सृष्टि को तामस ( अर्थात् तमोगुण के उत्कर्ष से होने वाली ) कहते हैं। सारांश यह है कि, जब अहंकार अपनी शक्ति से भिन्न-भिन्न पदार्थ उत्पन्न करने लगता है, तब उसी में एक बार सतोगुण का उत्कर्ष होकर एक ओर पाँच ज्ञानेंन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन को मिला कर इन्द्रिय-सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इंन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं; और दूसरी ओर, तमोगुण का उत्कर्ष होकर उससे निरिन्द्रिय-सृष्टि के मूलभूत पाँच तन्मात्रद्रव्य उत्पन्न होते हैं। परन्तु प्रकृति की सूक्ष्मता अब तक कायम रही है, इसलिये अहंकार से उत्पन्न होने वाले ये सोलह तत्त्व भी सूक्ष्म ही रहते हैं[1]

शब्द, स्पर्श, रूप और रस की तन्मात्राएँ-अर्थात् बिना मिश्रण हुए प्रत्येक गुण के भिन्न-भिन्न अति सूक्ष्म मूलस्वरूप-निरिंन्द्रिय-सृष्टि के मूलतत्त्व है; और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ सेन्द्रिय-सृष्टि की जड़ें हैं। इस विषय की सांख्यशास्त्र की उत्‍पत्ति विचार करने योग्य हैं, कि निरिंन्द्रिय-सृष्टि के मूलतत्त्व ( तन्मात्र ) पाँच ही क्यों और सेन्द्रिय-सृष्टि के मूलतत्त्व ग्यारह ही क्यों माने जाते हैं। अर्वाचीन सृष्टि-शास्त्रज्ञों ने सृष्टि के पदार्थों के तीन भेद-घन, द्रव और वायुरूपी-किये हैं; परन्तु सांख्य-शास्त्रकारों का वर्गीकरण इससे भिन्न है। उनका कथन है कि, मनुष्य को सृष्टि के सब पद्रार्थों का ज्ञान केवल पाँच ज्ञानेन्द्रियों से हुआ करता है; और, इन ज्ञानेन्द्रियों की रचना कुछ ऐसी विलक्षण है, कि एक इन्द्रिय को सिर्फ एक ही गुण का ज्ञान हुआ करता है। आँखों से सुगंध नहीं मालूम होती और न कान से दीखता ही है; नाक से सफेद और काले रंग का भेद भी नहीं मालूम होता।

जब, इस प्रकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके पाँच विषय-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- निश्चित हैं, तब यह प्रगट है कि हम कल्पना से यह मान भी लें कि गुण पाँच से अधिक हैं, तो कहना नहीं होगा कि उनको जानने के लिये हमारे पास कोई साधनया उपाय नहीं है। इन पाँच गुणों में से प्रत्येक के अनेक भेद हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, यद्यपि ‘शब्द’ गुण एक ही है तथापि उसके छोटा, मोटा, कर्कश, भद्दा, फटा हुआ, कोमल, अथवा गायनशास्त्र के अनुसार निषाद, गांधार, षड्ज आदि, और व्याकरणशास्त्र के अनुसार कंठय, तालव्य, ओष्ठय आदि अनेक प्रकार हुआ करते हैं। इसी तरह यद्यपि ‘रूप्’ एक ही गुण है तथापि उसके भी अनेक भेद हुआ करते हैं, जैसे सफेद, काला, नीला, पीला, हरा आदि। इसी तरह यद्यपि ‘रस’ या ‘रुचि’ एक ही गुण है तथापि उसके खट्टा, मीठा, तीखा, कडुवा, खारा आदि अनेक भेद हो जाते हैं; और ‘मिठास’ यद्यपि एक विशिष्‍ट रुचि है, तथापि हम देखते हैं कि गन्ने का मिठास, दूध का मिठास, गुड़ का मिठास और शक्कर का मिठास भिन्न-भिन्न होता है तथा इस प्रकार उस एक ही 'मिठास' के अनेक भेद हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संक्षेप में यही अर्थ अंग्रेजी भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है:- The Primeval matter ( Prakriti ) was at first homogeneous. It resolved ( Buddhi) to unfold itself, and by the Principle of differentiation (Ahamkara) became heterogeneous. It then branched off into two sections-one organic (Sendriya), and the other in-organic (Nirindriy). There are elevan elements of the inorganic and five of the inorganic creation. Purusha or the observer is different from all these and falls under none of the above categories.

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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