गीता रहस्य -तिलक पृ. 159

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

आधुनिक सृष्टि-शास्त्रज्ञों के उक्त मत पर ध्यान देने से सांख्यों का यह सिद्धान्त आश्चर्यकारक नहीं प्रतीत होता, कि प्रकृति में पहले बुद्धि-गुण का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति में प्रथम उत्पन्न होने वाले इस गुण को, यदि आप चाहें तो, अचेतन अथवा अस्वयंवेद्य अर्थात् अपने आप को ज्ञात न होने वाली बुद्धि कह सकते हैं। परन्तु, उसे चाहे जो कहें, इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य को होने वाली बुद्धि और प्रकृति को होने वाली बुद्धि दोनों मूल में एक ही श्रेणी की हैं; और इसी कारण दोनों स्थानों पर उनकी व्याख्याएँ भी एक ही सी की गई हैं। इस बुद्धि के ही ‘महत्, ज्ञान, मति, आसुरी, प्रज्ञा, ख्याति’ आदि अन्य नाम भी हैं। मालूम होता है कि इनमें से ‘महत्’[1] नाम इस गुण की श्रेष्ठता के कारण, दिया गया होगा, अथवा इसलिये दिया गया होगा कि अब प्रकृति बढ़ने लगती है। प्रकृति में पहले उत्पन्न होने वाला महान् अथवा बुद्धि-गुण ‘सत्त्व-रज-तम’ के मिश्रण ही का परिणाम है, इसलिये प्रकृति की यह बुद्धि यद्यपि देखने में एक ही प्रतीत होती हो तथापि यह आगे कई प्रकार की हो सकती हैं। क्योंकि ये गुण-सत्त्व, रज और तम-प्रथम दृष्टि से यद्यपि तीन ही हैं, तथापि विचार-दृष्टि से प्रगट हो जाता है कि इनके मिश्रण में प्रत्येक गुण का परिमाण अनंत रीति से भिन्न-भिन्न हुआ करता है; और इसीलिये, इन तीनों में से प्रत्येक गुण के अनंत भिन्न परिमाण से उत्पन्न होने वाले बुद्धि के प्रकार भी त्रिघात अनंत हो सकते हैं! अव्यक्त प्रकृति से निर्मित होने वाली यह बुद्धि भी प्रकृति के ही सदृश सूक्ष्म होती है।

परन्तु, पिछले प्रकरण में ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ तथा ‘सूक्ष्म’ और ‘स्थूल’ का जो अर्थ बतलाया गया है उसके अनुसार, यह बुद्धि प्रकृति के समान सूक्ष्म होने पर भी उसके समान अव्यक्त नहीं है- मनुष्य को इसका ज्ञान हो सकता है। अतएव, अब यह सिद्ध हो चुका कि इस बुद्धि का समावेश व्यक्त में [2] होता है; और सांख्यशास्त्र में, न केवल बुद्धि किन्तु बुद्धि के आगे प्रकृति के सब विकार भी व्यक्त ही माने जाते हैं। केवल एक मूल प्रकृति के सिवा कोई भी अन्य तत्त्व अव्यक्त नहीं है। इस प्रकार, यद्यपि अव्यक्त प्रकृति में व्यक्त व्यवसायात्मिक बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, तथापि प्रकृति अब तक एक ही बनी रहती है। इस एकता का भंग होना और अनेकता या विविधता का उत्पन्न होना ही पृथक्त्व कहलाता है। उदाहरणार्थ, पारे का जमीन पर गिरना और उसकी अलग-अलग छोटी-छोटी गोलियाँ बन जाना। बुद्धि के बाद जब तक यह प्रथक्ता या विविधता उत्पन्न न हो, तब तक एक प्रकृति के अनेक पदार्थ हो जाना संभव नहीं। बुद्धि से आगे उत्पन्न होने वाली इस प्रथक्ता के गुण को ही ‘अहंकार’ कहते हैं। क्योंकि पृथक्‍ता ‘मैं-तू’ शब्दों से ही प्रथम व्यक्त की जाती है; और ‘ मैं-तू ‘ का अर्थ ही अहंकार, अथवा अहं अहं ( मैं-मैं) करना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुल्लिंग कर्त्ता का एक वचन महान् = बड़ा
  2. अर्थात् मनुष्य को गोचर होने वाले पदार्थों में

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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