गीता रहस्य -तिलक पृ. 154

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

यह वर्णन सांख्य-वादियों के उस सिद्धान्त के अनुसार नहीं है जिसके द्वारा वे यह प्रतिपादन करते हैं, कि ‘ प्रकृति‘ और ‘पुरुष’ दोनों पृथक्-पृथक् तत्त्व हैं और पुरुष का ‘कैवल्य’ ही त्रिगुणातीत अवस्था है। यह भेद आगे अध्यात्म-प्रकरण में अच्छी तरह समझा दिया गया है।

परन्तु, गीता में यद्यपि अध्यात्म पक्ष ही प्रतिपादित किया गया है, तथापि आध्यात्मिक तत्त्वों का वर्णन करते समय भगवान श्रीकृष्ण ने सांख्य-वादियों की परिभाषा का और युक्ति-वाद का हर जगह उपयोग किया है, इसलिये संभव है कि गीता पढ़ते समय कोई यह समझ बैठे कि गीता को सांख्य-वादियों के ही सिद्धान्त ग्राह्य हैं। इस भ्रम को हटाने के लिये ही सांख्यशास्त्र और गीता के तत्-सदृश सिद्धान्तों का भेद फिर से यहाँ बतलाया गया है।

वेदान्तसूत्रों के भाष्य में श्री शंकराचार्य ने कहा है कि उपनिषदों के इस अद्वैत सिद्धान्त को न छोड़ कर, कि ‘‘प्रकृति और पुरुष के परे इस जगत् का परब्रह्मरूपी एक ही मूलतत्त्व है और उसी से प्रकृति-पुरुष आदि सब सृष्टि की भी उत्पत्ति हुई है, ‘‘सांख्यशास्त्र के शेष सिद्धान्त हमें अग्राह्य नहीं है [1]। यही बात गीता के उपपादन के विषय में भी चरितार्थ होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेसू. शां. भा. 2.1.3

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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