गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
सातवां प्रकरण
यह वर्णन सांख्य-वादियों के उस सिद्धान्त के अनुसार नहीं है जिसके द्वारा वे यह प्रतिपादन करते हैं, कि ‘ प्रकृति‘ और ‘पुरुष’ दोनों पृथक्-पृथक् तत्त्व हैं और पुरुष का ‘कैवल्य’ ही त्रिगुणातीत अवस्था है। यह भेद आगे अध्यात्म-प्रकरण में अच्छी तरह समझा दिया गया है। परन्तु, गीता में यद्यपि अध्यात्म पक्ष ही प्रतिपादित किया गया है, तथापि आध्यात्मिक तत्त्वों का वर्णन करते समय भगवान श्रीकृष्ण ने सांख्य-वादियों की परिभाषा का और युक्ति-वाद का हर जगह उपयोग किया है, इसलिये संभव है कि गीता पढ़ते समय कोई यह समझ बैठे कि गीता को सांख्य-वादियों के ही सिद्धान्त ग्राह्य हैं। इस भ्रम को हटाने के लिये ही सांख्यशास्त्र और गीता के तत्-सदृश सिद्धान्तों का भेद फिर से यहाँ बतलाया गया है। वेदान्तसूत्रों के भाष्य में श्री शंकराचार्य ने कहा है कि उपनिषदों के इस अद्वैत सिद्धान्त को न छोड़ कर, कि ‘‘प्रकृति और पुरुष के परे इस जगत् का परब्रह्मरूपी एक ही मूलतत्त्व है और उसी से प्रकृति-पुरुष आदि सब सृष्टि की भी उत्पत्ति हुई है, ‘‘सांख्यशास्त्र के शेष सिद्धान्त हमें अग्राह्य नहीं है [1]। यही बात गीता के उपपादन के विषय में भी चरितार्थ होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेसू. शां. भा. 2.1.3
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