गीता रहस्य -तिलक पृ. 153

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

ऐसे प्रयत्नों से जब बुद्धि सात्त्विक हो जाती है, तो फिर उसमें ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य आदि गुण उत्पन्न होते हैं और मनुष्य अंत में कैवल्य पद प्राप्त हो जाता है। जिस वस्तु को पाने की मनुष्य इच्छा करता है उसे प्राप्त कर लेने के योग-सामर्थ्य को ही यहाँ ऐश्वर्य कहा है। सांख्य-मत के अनुसार धर्म की गणना सात्त्विक गुण में ही की जाती है परंतु कपिलाचार्य ने अंत में यह भेद किया है कि केवल धर्म से स्वर्ग-प्राप्ति ही होती है, और ज्ञान तथा वैराग्य ( संन्यास ) से मोक्ष या कैवल्य पद प्राप्त होता है तथा पुरुष के दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाती है। जब देह इन्द्रियों और बुद्धि में पहले सत्त्व गुण का उत्कर्ष होता है और जब धीरे-धीरे उन्नति होते-होते अंत में पुरुष को यह ज्ञान हो जाता है कि मैं त्रिगुणात्मक प्रकृति से भिन्न हूँ, तब उसे सांख्य-वादी "त्रिगुणातीत" अर्थात् सत्त्व-रज-तम गुणों के परे पहुँचा हुआ कहते हैं। इस त्रिगुणातीत अवस्था में सत्त्व-रज-तम में से कोई भी गुण शेष नहीं रहता। कुछ सूक्ष्म विचार करने से मानना पड़ता है कि यह त्रिगुणातीत अवस्था सात्त्विक, राजस और तामस इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न है। इसी अभिप्राय से भागवत में भक्त्ति के तामस, राजस और सात्त्विक भेद करने के पश्चात् एक और चौथा भेद किया गया है। तीनों गुणों के पार हो जाने वाला पुरुष निर्हेतुक कहलाता है और अभेद भाव से जो भक्त्ति की जाती है उसे ‘‘ निर्गुण भक्त्ति ‘‘ कहते हैं [1]

परंतु सात्त्विक, राजस और तामस इन तीन वर्गों की अपेक्षा वर्गीकरण के तत्त्वों को व्यर्थ अधिक बढ़ाना उचित नहीं है; इसलिये सांख्य-वादी कहते हैं कि सत्त्व गुण के अत्यंत उत्कर्ष से ही अंत में त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त हुआ करती है और इसलिये वे इस अवस्था की गणना सात्त्विक वर्ग में ही करते हैं। गीता में भी यही मत स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ, वहाँ कहा है कि ‘‘ जिस अभेदात्मक ज्ञान से यह मालूम हो कि सब कुछ एक ही है उसी को सात्त्विक ज्ञान कहते है ‘‘[2]। इसके सिवा सत्त्वगुण के वर्णन के बाद ही, गीता में 14 वें अध्याय के अंत में, त्रिगुणातीत अवस्था का वर्णन है; परंतु भगवद्गीता को यह प्रकृति और पुरुष-वाला द्वैत मान्य नहीं है इसलिये ध्यान रखना चाहिये कि गीता में ‘प्रकृति’, ‘पुरुष’, ‘त्रिगुणातीत‘ इत्यादि सांख्य-वादियों के परिभाषिक शब्दों का उपयोग कुछ भिन्न अर्थ में किया गया है; अथवा यह कहिये कि गीता में सांख्य-वादियों के द्वैत पर अद्वैत परब्रह्मा की ‘ छाप ‘ सर्वत्र लगी हुई है। उदाहरणार्थ, सांख्य-वदियों के प्रकृति-पुरुष-भेद का ही, गीता के 13 वें अध्याय में, वर्णन है [3]। परंतु वहाँ ‘ प्रकृति ‘ और ‘ पुरुष ‘ शब्दों का उपयोग क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अर्थ में हुआ है। इसी प्रकार 14 वें अध्याय में त्रिगुणातीत अवस्था का वर्णन [4] भी उस सिद्ध पुरुष के विषय में किया गया है जो त्रिगुणात्मक माया के फंदे से छूट कर उस परमात्मा को पहचानता है जो कि प्रकृति और पुरुष के भी परे है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भाग 3. 29. 7-14
  2. गी. 18.20
  3. गी. 13.19-34
  4. गी. 14. 22-27

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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