गीता रहस्य -तिलक पृ. 152

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

प्रत्येक पुरुष और प्रकृति का जब संयोग होता है तब प्रकृति अपने गुणों का जाला उस पुरुष के सामने फैलाती है और पुरुष उसका उपभोग करता रहता है। ऐसा होते-होते जिस पुरुष के चारों ओर की प्रकृति के खेल सात्त्विक हो जाते हैं, उस पुरुष को ही ( सब पुरुषों को नहीं ) सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है; और उस पुरुष के लिये ही, प्रकृति के सब खेल बन्द हो जाते हैं एवं वह अपने मूल तथा कैवल्य पद को पहुँच जाता है। परंतु, यद्यपि उस पुरुष को मोक्ष मिल गया, तो भी शेष सब पुरुषों को संसार में फँसे ही रहना पड़ता है। कदाचित् कोई यह समझे, कि ज्योंही पुरुष इस प्रकार कैवल्य पद को पहुँच जाता है त्योंही वह एकदम प्रकृति के जाले से छूट जाता होगा; परंतु सांख्य-मत अनुसार यह समझ गलत है। देह और इन्द्रिय रूपी प्रकृति के विकार, उस मनुष्य की मृत्यु तक उसे नहीं छोड़ते। सांख्य-वादी इसका यह कारण बतलाते हैं कि, ‘‘ जिस प्रकार कुम्हार का पहिया, घड़ा बन कर निकाल लिया जाने पर भी, पूर्व संस्कार के कारण कुछ देर तक घूमता ही रहता है; उसी प्रकार कैवल्य पद की प्राप्ति हो जाने पर भी उस मनुष्य का शरीर कुछ समय तक शेष रहता है ‘‘ [1]। तथापि,उस शरीर से, कैवल्य पद पर आरूढ़ होने वाले पुरुष को कुछ भी अड़चन या सुख-दुःख की बाधा नहीं होती।

क्योंकि, यह शरीर जड़ प्रकृति का विकार होने के कारण स्वयं जड़ ही है, इसलिये इसे सुख-दुख दोनों समान ही हैं और यदि यह कहा जाय कि पुरुष को सुख-दुःख की बाधा होती है, तो यह भी ठीक नही; क्योंकि उसे मालूम है कि मैं प्रकृति से भिन्न हूँ, तब कर्तृव्य प्रकृति का है, मेरा नहीं। ऐसी अवस्था में प्रकृति के मनमाने खेल हुआ करते हैं, परंतु उसे सुख-दुःख नहीं होता और वह सदा उदासीन ही रहता है। जो पुरुष प्रकृति के तीनों गुणों से छूट कर यह ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता, वह जन्म-मरण से छुट्टी नहीं पा सकता; चाहे वह सत्त्वगुण के उत्कर्ष के कारण देवयोनि में जन्म ले, या रजोगुण के उत्कर्ष के कारण मानव-योनि में जन्म ले, या तमोगुण की प्रबलता के कारण पशु-कोटि में जन्म लेवे[2]। जन्म-मरणरूपी चक्र के ये फल, प्रत्येक मनुष्य को, उसके चारों ओर की प्रकृति अर्थात् उसकी बुद्धि के सत्त्व-रज-तम गुणों के उत्कर्ष-अपकर्ष के कारण प्राप्त हुआ करते हैं।

गीता में भी कहा है कि ‘‘ ऊर्ध्व गच्छन्ति सस्वस्थाः “ सात्त्विक वृति के पुरुष स्वर्ग को जाते हैं और तामस पुरुषों को अधोगति प्राप्त होती है [3]। परंतु स्वर्गादि फल अनित्‍य हैं। जिस जन्म-मरण से छुट्टी पाना है, या सांख्यों की परिभाषा के अनुसार जिसे प्रकृति से अपनी भिन्नता अर्थात् कैवल्य चिरस्थायी रखना है, उसे त्रिगुणातीत हो कर विरक्त ( संन्यस्त ) होने के सिवा दूसरा मार्ग नहीं है। कपिलाचार्य को यह वैराग्य और ज्ञान जन्मते ही प्राप्त हुआ था। परंतु यह स्थिति सब लोगों को जन्म ही से प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिये तत्त्व-विवेक रूप साधन से प्रकृति और पुरुष की भिन्नता को पहचान कर प्रत्येक पुरुष को अपनी बुद्धि शुद्ध कर लेने का यत्न करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सां. का. 67
  2. सां. का. 44, 54
  3. गी. 14. 18.

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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