गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
यह पंथ इस मत को मानता है कि माया रहित शुद्ध जीव और ब्रह्म एक ही है, और इसके सिद्धांत कुछ ऐसे है;- जैसे जीव, अग्नि की चिनगारी के समान, ईश्वर का अंश है; एक शक्ति है; मायाधीन जीव को बिना ईश्वर की कृपा के मोक्षज्ञान नहीं हो सकता; इसलिये मोक्ष का मुख्य साधन भगवद्वक्ति ही है- जिनसे यह संप्रदाय शांकरसम्प्रदाय से भी भिन्न हो गया है। इस मार्ग वाले परमेश्वर के अनुग्रह को 'पुष्टि' और 'पोषण' भी कहते हैं, जिससे यह पंथ 'पुष्टिमार्ग' भी कहलाता है। इस संप्रदाय के तत्त्व दीपिका आदि जितने गीता संबंधी ग्रंथ हैं उनमें यह निर्णय किया गया है कि, भगवान ने अर्जुन को पहले सांख्यज्ञान और कर्मयोग बतलाया है, एवं अंत में उसको भक्तअमृत पिलाकर कृतकृत्य किया है इसलिये भगवद्गीता- और विशेषतः निवृति-विषयक पुष्टिमार्गीय भक्ति-ही गीता का प्रधान तात्पर्य है। यही कारण है कि भगवान ने गीता के अंत में यह उपदेश दिया है कि "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रजं"- सब धर्मों को छोड़कर केवल मेरी ही शरण ले[1]। उपर्युक्त संप्रदायों के अतिरिक्त निम्बार्क का चलाया हुआ एक और वैष्णव संप्रदाय है जिसमें राधाकृष्ण की भक्ति कही गई है। डाक्टर भांडारकर ने निश्चय किया है कि ये आचार्य, रामानुज के बाद और मध्वाचार्य के पहले, क़रीब संवत् 1216 के, हुए थे। जीव, जगत और ईश्वर के संबंध में निम्बार्काचार्य का यह मत है कि यद्यपि ये तीनों भिन्न हैं तथापि जीव और जगत का व्यापार तथा अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर अवलम्बित है- स्वतंत्र नहीं है और परमेश्वर में ही जीव और जगत के सूक्ष्म तत्त्व रहते हैं। इस मत को सिद्ध करने के लिये निंबार्काचार्य ने वेदान्तसूत्रों पर एक स्वतंत्रभाष्य लिखा है। इसी संप्रदाय के केशव कश्मीरि भटाचार्य ने गीता पर 'तत्त्व-प्रकाशिका' नामक टीका लिखी है और उसमें यह बतलाया है कि गीता का वास्तविक अर्थ इसी संप्रदाय के अनुकूल है। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत पंथ से इस संप्रदाय को अलग करने के लिये इसे 'द्वैताद्वैती' संप्रदाय कह सकेंगे। यह बात स्पष्ट है कि ये सब भिन्न-भिन्न संप्रदाय शांकरसम्प्रदाय के मायावाद को स्वीकृत न करके ही पैदा हुए हैं, क्योंकि इनकी यह समझ थी कि आंख से दिखने वाली वस्तु को सच्ची माने बिना व्यक्त की उपासना अर्थात् भक्ति निराधार, या किसी अंश में मिथ्या भी, हो जाती है। परन्तु यह कोई आवश्यक बात नही है कि भक्ति की उपपत्ति के लिये अद्वैत और मायावाद को बिलकुल छोड़ ही देना चाहिये। महाराष्ट के और अन्य साधु-सन्त ने, मायावाद और अद्वैत को स्वीकार करके भी, भक्ति का समर्थन किया है और मालूम होता है कि यह भक्ति मार्ग श्रीशंकराचार्य के पहले ही से चला आ रहा है। इस पंथ में शांकरसम्प्रदाय के कुछ सिद्धांत-अद्वैत, माया का मिथ्या होना, और कर्मत्याग की आवश्यकता- ग्राह्य और मान्य है। परन्तु इस पंथ का यह भी मत है, कि ब्रह्मत्मैक्य रूप से मोक्ष की प्राप्ति का सब से सुगम साधन भक्ति है; गीता में भगवान ने पहले यही कारण बतलाया है कि "केशोअधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्"[2] अर्थात अव्यक्त ब्रह्म में चित लगाना अधिक क्लेशमय है और फिर अर्जुन को यही उपदेश दिया है कि "भक्तास्तेअतवि" में प्रियाः "[3] अर्थात मेरे भक्त ही मुझको अतिशय प्रिय है; अतएव यह बात प्रगट है कि अद्वैतपर्यवसायी भक्ति मार्ग ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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