गीता रहस्य -तिलक पृ. 147

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
सातवां प्रकरण

इसी प्रकार सिर पर चोट लगने से जब मस्तिष्क का कोई भाग बिगड़ जाता है तब भी उस भाग की मानसिक शक्ति नष्ट हो जाती है। सारांश यह है कि, मनोधर्म भी जड़ मस्तिष्क के ही गुण है; अतएव वे जड़ वस्तु से कभी अलग नहीं किये जा सकते, और इसीलिये मस्तिष्क के साथ साथ मनोधर्म और आत्मा को भी ‘व्यक्त’ पदार्थों के वर्ग में शामिल करना चाहिये। यदि यह जड़-वाद मान लिया जाये तो अंत में केवल अव्‍यक्‍त और जड़ प्रकृति ही शेष रह जाती है; क्योंकि सब व्यक्त पदार्थ इस मूल अव्यक्त प्रकृति से ही बने हैं। ऐसी अवस्था में प्रकृति के सिवा जगत का कर्ता या उत्पादक दूसरा कोई नहीं हो सकता। तब तो यही कहना होगा कि, मूल प्रकृति की शक्ति धीरे धीरे बढ़ती गई और अन्त में उसी को चैतन्य या आत्मा का स्‍वरूप प्राप्त हो गया। सत्कार्य-वाद के समान, इस मूल प्रकृति के कुछ कायदे या नियम बने हुए हैं; और उन्हीं नियमों के अनुसार सब जगत, और साथ ही साथ मनुष्य भी, कैदी के समान बर्ताव किया करता है!

जब जड़-प्रकृति के सिवा आत्मा कोई भिन्न वस्तु है ही नहीं, तब कहना नहीं होगा कि आत्मा न तो अविनाशी है और न स्वतंत्र। तब मोक्ष या मुक्ति की आवश्यकता ही क्या है? प्रत्येक मनुष्य को मालूम होता है कि, मैं अपनी इच्छा के अनुसार अमुक काम कर लूंगा; परंतु वह सब केवल भ्रम है! प्रकृति जिस ओर खींचेगी उसी ओर मनुष्य को झुकना पड़ेगा! अथवा किसी कवि के कथनानुसार कहना चाहिये कि, ‘‘यह सारा विश्व एक बहुत बड़ा कारागार है, प्राणिमात्र कैदी हैं और पदार्थों के गुण-धर्म बेड़ियां हैं- इन बेड़ियों को कोई तोड़ नहीं सकता।’’ बस; यही है कल के मत का सारांश है। उसके मतानुसार सारी सृष्टि का मूल कारण एक जड़ और अव्यक्त प्रकृति ही है, इसलिये उसने अपने सिद्धान्त को सिर्फ [1]‘‘अद्वैत’’ कहा है! परंतु यह अद्वैत जड़मूलक है; अर्थात यह अकेली जड़ प्रकृति में ही सब बातों का समावेश करता है; इस कारण हम इसे जड़ाद्वैत या आधिभौतिक-शास्त्राद्वैत कहेंगे।

हमारे सांख्यशास्त्रकार इस जड़ाद्वैत को नहीं मानते। वे कहते हैं कि मन, बुद्धि और अहंकार, पंचभूतात्मक जड़-प्रकृति के ही धर्म हैं, और सांख्यशास्त्र में भी यही लिखा है कि अव्यक्त प्रकृति से ही बृद्धि, अहंकार इत्यादि गुण क्रम से उत्पन्न होते जाते हैं। परंतु उनका कथन है कि, जड़ प्रकृति से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती; इतना ही नहीं, वरन् जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने ही कंधों पर बैठ नहीं सकता, उसी प्रकार प्रकृति को जानने वाला या देखने वाला जब तक प्रकृति से भिन्न न हो तब तक वह ‘‘मैं यह जानता हूँ- वह जानता हूँ’’ इत्यादि भाषा-व्यवहार का उपयोग कर ही नहीं सकता। और इस जगत के व्यवहारों की ओर देखने से तो सब लोगों का यही अनुभव जान पड़ता है कि ‘मैं जो कुछ देखता हूँ या जानता हूँ, वह मुझसे भिन्न है’। इसलिये सांख्यशास्त्रकारों ने कहा है कि ज्ञाता और ज्ञेय, देखने वाला और देखने की वस्तु या प्रकृति को देखने वाला और जड़ प्रकृति, इन दोनों बातों को मूल से ही पृथक् पृथक् मानना चाहिये [2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हैकल का मूलशब्‍द Monism है और इस विषय पर उसने एक स्‍वतंत्र ग्रन्‍थ भी लिखा हैा
  2. सां.का.17

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः