गीता रहस्य -तिलक पृ. 145

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

साम्यावस्था में रहने वाली प्रकृति को, सांख्यशास्त्र में, ‘अव्यक्त’ अर्थात इन्द्रियों को गोचर न होने वाली कहा है। इस प्रकृति के सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की परस्पर न्यूनाधिकता के कारण जो अनेक पदार्थ हमारी इन्द्रियों को गोचर होते हैं; अर्थात जिन्हें हम देखते हैं, सुनते हैं, चखते हैं, सूंघतें हैं या स्पर्श करते हैं; उन्हें सांख्याशास्त्र में ‘व्यक्त’ कहा है। स्मरण रहे कि जो पदार्थ हमारी इन्द्रियों को स्पष्ट रीति से गोचर हो सकते हैं वे सब ‘व्यक्त’ कहलाते हैं; चाहे फिर वे पदार्थ अपनी आकृति के कारण, रूप् के कारण, गंध के कारण या किसी अन्य गुण के कारण व्यक्त होते हो। व्यक्त पदार्थ अनेक हैं। उनमें से कुछ, जैसे पत्थर, पेड़, पशु इत्यादि स्थूल कहलाते हैं; और कुछ, जैसे मन, बुद्धि, आकाश इत्यादि (यद्यपि ये इन्द्रिय-गोचर अर्थात व्यक्त हैं) तथापि सूक्ष्म कहलाते हैं। यहाँ ‘सूक्ष्म’ से छोटे का मतलब नहीं है; क्योंकि आकाश यद्यपि सूक्ष्म है तथापि वह सारे जगत में सर्वत्र व्याप्त है। इसलिये, सूक्ष्म शब्द से ‘स्थूल के विरुद्ध’ या वायु से भी अधिक महीन, यही अर्थ लेना चाहिये। ‘स्थूल’ और ‘सूक्ष्म’ शब्दों से किसी वस्तु की शरीर-रचना का ज्ञान होता है; और ‘व्यक्त’ एवं ‘अव्यक्त’ शब्दों से हमें यह बोध होता है कि उस वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें हो सकता है, या नहीं। अतएव दो भिन्न पदार्थों में से (चाहे वे दोनों सूक्ष्म हों तो भी) एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त हो सकता है।

उदाहरणार्थ, यद्यपि हवा सूक्ष्म है तथापि हमारी स्पर्शेन्द्रिय को उसका ज्ञान होता है, इसलिये उसे व्यक्त कहते हैं और सब पदार्थों की मूल प्रकृति(या मूलद्रव्य) वायु से भी अत्यंत सूक्ष्म है और उसका ज्ञान हमारी किसी इन्द्रिय को नहीं होता, इसलिये उसे अव्यक्त कहते हैं। अब, यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यदि इस प्रकृति का ज्ञान किसी भी इन्द्रिय को नहीं होता, तो उसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिये क्या प्रमाण है? इस प्रश्न का उत्तर सांख्यवादी इस प्रकार देते हैं कि, अनेक व्यक्त पदार्थों के अवलोकन से सत्कार्य-वाद के अनुसार यही अनुमान सिद्ध होता है कि , इन सब पदार्थों का मूल रूप, प्रकृति यद्यपि इन्द्रियों को प्रत्यक्ष-गोचर न हो तथापि उसका अस्त्वि सूक्ष्म रूप से अवश्य होना चाहिए[1]। वेदान्तियों ने भी ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये इसी युक्ति को स्वीकार किया है[2]। यदि हम प्रकृति को इस प्रकार अत्यंत सूक्ष्म और अव्यक्त मान लें तो नैय्यायिकों के परमाणुवाद की जड़ ही उखड़ जाती है; क्यों कि परमाणु यद्यपि अव्यक्त और असंख्य हो सकते हैं, तथापि प्रत्येक परमाणु के स्वतंत्र व्यक्ति या अवयव हो जाने के कारण यह प्रश्न फिर भी शेष रह जाता है कि दो परमाणुओं के बीच में कौन सा पदार्थ है? इसी कारण सांख्यशास्त्र का सिद्धान्त है कि, प्रकृति में परमाणु रूप् अवयवभेद नहीं है; किन्तु वह सदैव एक से एक लगी हुई, बीच में थोड़ा भी अन्तर न छोड़ती हुई, एक ही समान है; अथवा यों कहिये कि वह अव्यक्त [3] और निरवयव रूप् से निरंतर और सर्वत्र है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सां. का.8
  2. कठ.6.12.13 पर शांकर भाष्य देखो
  3. अर्थात इन्द्रियों को गोचर न होने वाले

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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