गीता रहस्य -तिलक पृ. 131

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

कुछ भी हो ; इसमें संदेह नहीं कि क्षेत्र शब्द से सब लोगों को एक ही अर्थ अभिप्रेत है; जैसे, मानसिक और शारीरिक सब द्रव्यों और गुणों का प्राणरूपी विशिष्ट चेतनायुक्त जो समुदाय है उसी को क्षेत्र कहते हैं। शरीर शब्द का उपयोग मृत देह के लिये भी किया जाता है; अतएव इस विषय का विचार करते समय 'क्षेत्र’ शब्द ही का अधिक उपयोग किया जाता है, क्योंकि वह शरीर शब्द से भिन्न है। 'क्षेत्र’ का मूल अर्थ खेत है; परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ’सविकार और सजीव मनुष्य देह’ के अर्थ में उसका लाक्षणिक उपयोग किया गया है। पहले जिसे हमने ’बड़ा कारख़ाना’ कहा है, वह यही ’सविकार और सजीव मनुष्य देह’ है। बाहर का माल भीतर लेने के लिये और कारख़ाने के भीतर का माल बाहर भेजने के लिये, ज्ञानेन्द्रियां उस कारख़ाने के यथाक्रम द्वार हैं; और मन, बुद्धि, अहंकार एवं चेतना उस कारख़ाने में काम करने वाले नौकर हैं। ये नौकर जो कुछ व्यवहार करते हैं या कराते हैं; उन्हें इस क्षेत्र के व्यापार, विकार अथवा धर्म कहते हैं।

इस प्रकार ’क्षेत्र’ शब्द का अर्थ निश्चित हो जाने पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि, यह क्षेत्र अथवा खेत है किसका? इस कारख़ाने का कोई स्वामी भी है या नहीं? आत्मा शब्द का उपयोग बहुध मन, अंतःकरण तथा स्वयं अपने लिये भी किया जाता है; परन्तु उसका प्रधान अर्थ ’क्षेत्रज्ञ’ अथवा ’शरीर का स्वामी’ ही है। मनुष्य के जितने व्यापार हुआ करते हैं- चाहे वे मानसिक हों या शारीरिक- वे सब उसकी बुद्धि आदि अन्तरिंद्रियां, चक्षु आदि ज्ञानेंन्द्रियां, तथा हस्त पाद आदि कमेंन्द्रियां ही किया करती हैं। इन्द्रियों के इस समूह में बुद्धि और मन सब से श्रेष्ठ हैं। परन्तु, यद्यपि वे श्रेष्ठ हैं, तथापि अन्य इन्द्रियों के समान वे भी मूल में जड़ देह या प्रकृति के ही विकार हैं[1]।अतएव, यद्यपि मन और बुद्धि सब में श्रेष्ठ हैं, तथापि उनसे अपने अपने विशिष्ट व्यापार के अतिरिक्त और कुछ करते धरते नहीं बनता ; और न कर सकना संभव ही है।

यह सच है कि, मन चिंतन करता है और बुद्धि निश्चय करती है। परन्तु इस कथन से इस बात का निर्णय नहीं हो सकता कि, इन कामों को बुद्धि और मन किसके लिये करते हैं अथवा भिन्न-भिन्न समय पर मन और बुद्धि के जो पृथक् पृथक् व्यापार हुआ करते हैं, उनका एकत्र ज्ञान होने के लिये जो एकता करनी पड़ती है वह एकता या एकीकरण कौन करता है, तथा उसी के अनुसार आगे सब इन्द्रियों को अपना-अपना व्यापार तदनुकूल करने की दिशा कौन दिखाता है। यह नहीं कहा जा सकता, कि यह सब काम मनुष्य का जड़ शरीर ही किया करता है इसका कारण यह है कि, जब इस शरीर की चेतना अथवा सब हलचल करने के व्यापार नष्ट हो जाते हैं, तब जड़ शरीर के बने रहने पर भी वह इन कामों को नहीं कर सकता। और, जड़ शरीर के घटकावयव जैसे मांस, स्नायु इत्यादि तो अन्न के परिणाम हैं तथा वे हमेशा जीर्ण होकर नये हो जाया करते हैं इसलिये, ’कल जिसे मैंने अमुक एक बात देखी थी, वही मैं आज दूसरी देख रहा हूं’ इस प्रकार की एकत्व बुद्धि के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि वह नित्य बदलने वाले जड़ शरीर का ही धर्म है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अगला प्रकरण देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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