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छठवाँ प्रकरण
अब इस बात का विचार करना चाहिये कि यह तत्त्वज्ञान कौन सा है। परन्तु इसका विवेचन करने के पहले यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि पश्चिमी आधिभौतिक-वादियों ने इस आधिदैवत पक्ष का किस प्रकार खंडन किया है। कारण यह है कि, यद्यपि इस विषय में आध्यात्मिक और आधिभौतिक पंथों के कारण भिन्न भिन्न हैं, तथापि उन दोनों का अंतिम निर्णय एक ही सा है। अतएव, पहले आधिभौतिक कारणों का उल्लेख कर देने से, आध्यात्मिक कारणों की महता और संयुक्तता पाठकों के ध्यान में शीघ्र आ जायेगी। ऊपर कह आये हैं कि आधिदैविक पंथ में शुद्ध मन को ही अग्रस्थान दिया गया है। इससे यह प्रगट होता है कि ‘अधिकांश लोगों का अधिक सुख’ वाले आधिभौतिक नीतिपंथ में, कर्ता की बुद्धि या हेतु के कुछ भी विचार किये न जाने का जो दोष पहले बतलाया गया है, वह इस आधिदैवतपक्ष में नहीं है। परन्तु जब हम इस बात का सूक्ष्म विचार करने लगते हैं कि सदसद्विवेकरूपी शुद्ध मनोदेवता किसे कहना चाहिये, तब इस पंथ में भी दूसरी अनेक अपरिहार्य बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं। कोई भी बात लीजिये, कहने की आवश्यकता नहीं है कि, उसके बारे में भली-भाँति विचार करना- वह ग्राह्य है अथवा अग्राह्य है, करने के योग्य है या नहीं, उससे लाभ अथवा सुख होगा या नहीं, इत्यादि बातों को निश्चित करना- नाक अथवा आंख का काम नहीं है;किंतु यह काम उस स्वतंत्र इंद्रिय का है जिसे मन कहते हैं अर्थात्, कार्य-अकार्य अथवा धर्म-अधर्म का निर्णय नहीं करता है; चाहे आप उसे इंद्रिय कहें या देवता। यदि आधिदैविक पंथ का सिर्फ यही कहना हो, तो कोई आपत्तिनहीं। परन्तु पश्चिमी आधिदैवत पक्ष इससे एक डग और भी आगे बढ़ा हुआ है।
उसका यह कथन है कि, भला अथवा बुरा (सत् अथवा असत्), न्याय अथवा अन्याय, धर्म अथवा अधर्म का निर्णय करना एक बात है; और इस बात का निर्णय करना दूसरी बात है, कि अमुक पदार्थ भारी है या हलका है, गोरा है या काला, अथवा गणित का कोई उदाहरण सही या गलत। ये दोनों बातें अत्यंत भिन्न हैं। इनमें से दूसरे प्रकार की बातों का निर्णय करने के लिये केवल मन असमर्थ है, अतएव यह काम सदसद्विवेचन-शक्तिरूप देवता ही किया करता है जो कि हमारे मन में रहता है इसका कारण वे यह बतलाते हैं कि, जब हम किसी गणित के उदाहरण की जांच करके निश्चय करते हैं कि वह सही है या गलत, तब हम पहले उसके गुण, जोड़ आदि की जांच कर लेते हैं और फिर अपना निश्चय स्थिर करते है; अर्थात इस निश्चय के स्थिर होने के पहले मन को अन्य क्रिया या व्यापार करना पड़ता है। परन्तु भले-बुरे का निर्णय इस प्रकार नहीं किया जाता। जब हम यह सुनते हैं कि, किसी एक आदमी ने किसी दूसरे को जान से मार डाला, तब हमारे मुंह से एकाएक यह उद्गार निकल पड़ते है “राम राम! उसने बहुत बुरा काम किया!’’- इस विषय पर हमें कुछ भी विचार नहीं करना पड़ता। अतएव, यह नहीं कहा जा सकता कि, कुछ भी विचार न करके आप ही आप जो निर्णय हो जाता है, और जो निर्णय विचारपूर्वक किया जाता है, वे दोनों एक ही मनोवृति के व्यापार हैं।
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