गीता रहस्य -तिलक पृ. 114

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

केवल दूरदृष्टि यह बात किसी से नहीं कह सकती कि ‘तू यह कर, तुझे यह करना ही चाहिये।’ इसका कारण यही है कि कितनी भी दूरदृष्टि हो तो भी वह मनुष्यकृत ही है, और इसी कारण वह अपना प्रभाव मनुष्यों पर नहीं जमा सकती। ऐसे समय पर आज्ञा करने वाला हमसे श्रेष्ठ कोई अधिकारी अवश्‍य होना चाहिये और यह काम ईश्वरदत्त सदसद्विवेकबुद्धि ही कर सकती है, क्योंकि वह मनुष्य की अपेक्षा श्रेष्ठ अतएव मनुष्य पर अपना अधिकार जमाने में समर्थ है। यह सदसद्विवेकबुद्धि या ‘देवता’ स्वयंभू है, इसी कारण व्यवहार में यह कहने की रीति पड़ गई है कि मेरा ‘मनोदेव’ अमुक प्रकार की गवाही नहीं देता। जब कोई मनुष्य एक-आध बुरा काम कर बैठता है तब पश्चताप से वह स्वयं लज्जित हो जाता है और उसका मन उसे हमेशा टोंचता रहता है। यह भी उपर्युक्त देवता की शिक्षा का फल है। इस बात से भी स्वतंत्र मनोदेवता का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। कारण कि, आधिदैवत पंथ के मतानुसार, यदि उपर्युक्त सिद्धांत न माना जाय तो इस प्रश्‍न की उपपत्तिमालूम नहीं हो सकती कि हमारा मन हमें क्यों टोंचा करता है।ऊपर दिया हुआ सारांश पश्चिमी आधिदैवत पंथ का मत का है। पश्चिमी देशों में इस पंथ का प्रसार विशेषतः ईसाई- धर्मोपदेशकों ने किया है। उनके मत के अनुसार, धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये, केवल आधिभौतिक साधनों की अपेक्षा यह ईश्वरदत्त साधन सुलभ, श्रेष्ठ एवं ग्राह्य है।

यद्यपि हमारे देश में, प्राचीन काल में, कर्मयोगशास्त्र का ऐसा कोई स्वतंत्र पंथ नहीं था, तथापि उपर्युक्त मत हमारे प्राचीन ग्रंथों में कई जगह पाया जाता है। महाभारत में अनेक स्थानों पर, मन की भिन्न भिन्न वृत्तियों को देवताओं का स्वरूप दिया गया है। पिछले प्रकरण में कहा भी गया है कि धर्म, सत्य, वृत, शील, श्री आदि देवताओं ने प्रह्लाद के शरीर को छोड़ कर इन्द्र के शरीर मे कैसे प्रवेश किया। कार्य- अकार्य का अथवा धर्म-अधर्म का निर्णय करने वाले देवता का नाम भी ‘धर्म’ ही है। ऐसे वर्णन पाये जाते हैं कि, शिबि राजा के सत्त्व की परीक्षा करने के लिये श्येन रूप धरकर और युधिष्ठिर की परीक्षा लेने के लिये प्रथम यक्षरूप से तथा दूसरी बार कुत्‍ता बनकर, धर्मराज प्रगट हुए थे। स्वयं भगवद्गीता [1] में भी कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, और क्षमा ये सब देवता माने गये हैं। इनमे से स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मन के धर्म है। मन भी एक देवता है; और,परब्रह्मा का प्रतीक मानकर, उपनिषदों मे उसकी उपासना भी बतलाई गई है [2]। जब मनुजी कहते है कि “मनःपूतं समाचरेत्’’[3]- मन को जो पवित्र मालूम हो वही करना चाहिये- तब यही बोध होता है कि उन्हें मन शब्द से मनोदेवता ही अभिप्रेत है। साधारण व्यवहार में हम यही कहा करत हैं कि ‘जो मन को अच्छा मालूम हो वही करना चाहिये।’ मनुजी ने मनुसंहिता के चौथे अध्याय [4] में यह बात विशेष स्पष्ट कर दी है किः-


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.34
  2. तै. 3.4; छां.3.18
  3. 6.46
  4. 4.161

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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